कर्म के फलस्वरूप ईश्वर से अपने हित की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए


महाराज जी भक्तों को जमूरे शाह जी की अमृत वाणी का उपदेश दे रहे हैं-

कथा और कीर्तन, पूजन -पाठ करि- सार क्या जाना 
हुआ मन है नहीं काबू, करे जो उसके मन -माना।
सजा इसकी मिलै यारों, अन्त जब नर्क हो जाना।
भजन में इसकी नहीं गिनती, जब तलक मन न ठहराना।
जगत में मान होने, हित ठान झूठा -ये क्यों ठाना।
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हममें से बहुत से लोग उनके हीं अनुसार, ईश्वर की भक्ति करते हैं अर्थात पूजा -पाठ करते हैं, भजन -कीर्तन करते हैं, कथा-सत्संग इत्यादि करते हैं। कुछ लोग जितनी देर इन सब गतिविधियों में सम्मिलित रहते हैं उतनी देर उनका ध्यान ईश्वर भक्ति में लगता है, और कुछ लोग तो पूजा-पाठ, जागरण, कथा -सत्संग के दौरान ही आपस में बात करते रहते हैं, दूसरों की बुराई भी करते रहते हैं, इधर -उधर की बातें करते हैं। ऐसे समारोह समाप्त होने के बाद, फिर से, जो मन में गलत -सही आता है वो करते हैं - बिना अपने विवेक का उपयोग करते हुए।

जब ऐसे बुरे कर्मों के फल मिलने का समय आता है तो हममें से कुछ लोग ईश्वर को ही कभी -कभी कठघरे में खड़ा कर देते हैं की मैंने तुम्हारी कितनी पूजा की, कितना भजन- कीर्तन, सत्संग किया और तुमने मेरी बुरे समय से रक्षा नहीं की इत्यादि …..जब हम ऐसी बेहोशी वाली भक्ति (पता ही नहीं क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं, कैसे कर रहे हैं वाली भक्ति ) करते -करते,  गलत सही काम भी करते रहते हैं जैसा ऊपर कहा गया है, अर्थात अपने या अपनों के स्वार्थ के लिए दूसरों को दुःख देते हैं, पीड़ा देते हैं, उनकी आँखों में आंसू ले आते हैं तो ऐसे कर्मों का फल तो ईश्वर हमें देता ही देता है जिसका समय, स्वरुप, तीव्रता और अवधि भी ईश्वर ही तय करता है। तब कोई सुनवाई नहीं होती है।

ऐसा समय यदि तब आता है जब हम दूसरों पर निर्भर होने वाली स्थिति में होते हैं, तब, जब पैसा, ज़मीन -जायदाद, ओहदा, सुंदरता, बल, किताबी ज्ञान कोई मायने नहीं रखता है, जाति से तो कुछ मतलब ही नहीं होता है (ऐसे हो कुछ कारणों की वजह से हम दूसरों को दुःख देते हैं) - तब जीवन पीड़ा से भर जाता है। और ये समय यदि बुढ़ापे में आता है तो जीवन नर्क समान ही हो जाता है।महाराज जी ने समय -समय पर चेताया है की कोई काम, कुछ कर्म करते समय हमारे लिए ये जानना आवश्यक है कि जो भी हम कर रहे हैं, वो क्यों कर रहे हैं, उसका औचित्य क्या है, उसका फल कैसा हो सकता है ? और उस प्रश्न का उत्तर हमें किसी और से नहीं बल्कि अपने आप से ही जानना है। हममें से अधिकतर लोग ऐसा नहीं करते हैं, तदुपरांत कई ऐसे काम करते हैं जिनका कोई औचित्य नहीं होता है। उनका फल हमारे लिए कभी कभी बहुत बुरा होता है - जैसा ऊपर कहा गया है।

हम लोग भक्ति के विभिन्न मार्गों पर चलने का प्रयत्न करते हैं जैसे की कथा, भजन, कीर्तन, जागरण, पाठ सत्संग इत्यादि करना -करवाना, उसमें सम्मिलित होना इत्यादि। पर हम ऐसा क्यों करते हैं? यदि इसलिए की ईश्वर प्रसन्न होंगे तो ऐसा तभी होगा यदि हम इनमें निहित सन्देश -सार को समझें और उस पर चलने की कोशिश करे -यथासंभव पर ईमानदारी से । यदि ऐसा नहीं है तो महाराज जी कहते हैं की भक्ति से सम्बंधित ऐसे कार्यक्रम -समारोहों में केवल सम्मिलित होने से हमारा कोई कल्याण नहीं होने वाला। यदि हम बेमन, किसी मज़बूरी या शिष्टाचार की वजह से ऐसे कार्यक्रमों में सम्मिलित हो रहे हैं तो इसमें कुछ बुराई नहीं है परन्तु ऐसी परिस्थिति में हमें, इस कर्म के फलस्वरूप ईश्वर से अपने हित की कुछ अपेक्षा भी नहीं रखनी चाहिए।

जब हम भजन -कीर्तन -कथा -सत्संग में निहित सार, उनके सन्देश को समझने की कोशिश करते हैं तो कहीं ना कहीं हमारी सही -गलत की समझ बेहतर हो जाती है। अपने विवेक को उपयोग करने की सम्भावना भी बढ़ जाती है। चंचल मन को नियंत्रण करना संभव हो जाता है विशेषकर तब, जब हम कुछ ऐसा करने वाले हों जो हमें नहीं करना चाहिए, जिसका फल हमारे लिए बुरा होगा। जमूरे शाह जी के इस उपदेश के माध्यम से महाराज जी हमें समझा रहे हैं की जब तक हम अपने मन को इस तरह नियंत्रण करने के, धैर्यपूर्वक और नियमित रूप से, प्रयत्न नहीं करते हैं,  तब तक भगवान के दरबार में हमारे भजन की, हमारी भक्ति की गिनती नहीं होती है और जब हम भजन -कीर्तन -कथा -सत्संग में निहित सार, उनके सन्देश पर चलने का प्रयत्न करते हैं, धैर्य के साथ, तो हमारी भक्ति में सच्चे भाव आने लगते हैं।

बस फिर तो जीवन में सुख और शांति आनी हो आनी है और यदि हम भजन -कीर्तन -कथा -सत्संग इत्यादि किसी कारणवश नहीं कर पाते हैं पर महाराज जी के मुख्य उपदेशों पर चलने की ईमानदार कोशिश करते हैं, तो भी, हमारे जीवन में सुख और शांति निश्चित ही आएगी। हम महाराज जी की कृपा के पात्र बन सकेंगे। और प्रारब्ध काटते समय महाराज जी हमारे साथ होंगे - आज भी !!


महाराज जी सबका भला करें!

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