विभाजन की कहानी - ऐसे शुरू हुआ था विभाजन



जैसा कि हम जानते हैं की 1857 की क्रांति तक हिंदू और मुस्लिम एकता का जबरदस्त प्रदर्शन हमें देखने को मिला। फिरंगियों के मध्य इस क्रांति का सबसे बड़ा उत्तरदाई मुसलमान को माना गया, अंग्रेजों ने माना कि यह क्रांति इनकी वजह से ही हुई है। इसलिए अब अंग्रेजों ने मुस्लिम विरोध की नीति अख्तियार कर ली। परिणाम यह हुआ कि जो मुसलमान पहले से ही शिक्षा और सरकारी सेवाओं में पिछड़े हुए थे वह धीरे-धीरे और ज्यादा पिछड़ने लगे।

इसी दौरान सर सैयद अहमद खान का उदय हुआ, जिन्हें हम इस्लामिक आधुनिकीकरण के प्रणेता के रूप में जानते हैं। उन्होंने यह समझ लिया था कि इस समय अंग्रेजों का विरोध नहीं करना चाहिए क्योंकि अंग्रेज बहुत मजबूत है, मुसलमानों को चाहिए कि वह अंग्रेजों का सहयोग करें और पश्चिमी शिक्षा प्राप्त करें तथा ज्यादा से ज्यादा सरकारी नौकरियों में अपना प्रतिनिधित्व प्राप्त करें। वे चाहते थे कि इस दौरान मुसलमान अपना आर्थिक और सामाजिक विकास करें, इस समय स्थिति ऐसी नहीं है कि मुसलमान अंग्रेजों से टकराए बल्कि इस समय मुसलमानों के लिए अच्छा रास्ता यही है कि वह अंग्रेजों के साथ मित्रतापूर्ण संबंध बनाएं और ज्यादा से ज्यादा अपने हितों की रक्षा करें।

सर सैयद अहमद खान अपने शुरुआती जीवन में एक राष्ट्रवादी थे। उन्होंने हिंदू मुस्लिम एकता पर बहुत जोर दिया था। एक समय उन्होंने कहा था कि हिंदू और मुसलमान दो सुंदर आंखें हैं, लेकिन धीरे-धीरे मुसलमानों की शिक्षा ज्यादा बढे और उन्हें ज्यादा से ज्यादा सरकारी सेवा में लाभ मिले इसके लिए ये अंग्रेज समर्थक होते चले गए। बाद में ये हिंदुओं के कट्टर विरोधी होते चले गए। स्थिति यह हो गई कि अब इन्होंने यह तक कह दिया कि हिंदुओं के बीच मुसलमानों का उत्थान नहीं हो सकता। स्पष्ट है कि उनकी इन सब बातों के पीछे अंग्रेज ही उत्तरदाई थे। धीरे धीरे अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति के अंतर्गत ये एक सहायक के रूप में भी उभर गए थे और इन्होंने जबरदस्त तरीके से कांग्रेस का विरोध करना प्रारंभ कर दिया था, साथ ही मुसलमानों को राष्ट्रीय आंदोलन से काटने का भी प्रयास किया था। उन्होंने मुसलमानों को कांग्रेस की सदस्यता लेने पर रोक लगा दी थी। यही वह समय है जब सर सैयद अहमद ने मुस्लिम हित को कांग्रेस के राष्ट्रीय आंदोलन से भी ऊपर रखा। इनकी इसी बात को हम भारत में सांप्रदायिकता का पहला चरण मानते हैं अथवा पहला बिंदु मानते हैं जब यहां उन्होंने मुसलमानों को भारत में एक अलग पहचान के रूप में देखा।



उन्होंने मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्रीयता की परिभाषा दी। इस कारण इन्हें दो राष्ट्र सिद्धांत के अगुआ कहा जाता है। यह इसके पहले नायक थे। 1875 में मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल स्कूल की स्थापना इनके द्वारा की गई। यही संस्था आगे जाकर ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना की प्रणेता बनी। इस स्कूल में सभी धर्मों के लोग जाकर पढ़ सकते थे लेकिन इसका नाम सांप्रदायिक था। यही मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल स्कूल आगे जाकर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी बना। यह भी स्पष्ट है कि अलीगढ़ और यूनिवर्सिटी के बीच में मुस्लिम शब्द आया है। इसी प्रतिक्रिया स्वरुप आगे जाकर बनारस में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय देखने को मिलता है।

कहा जा सकता है कि कहीं ना कहीं 1875 में यह विद्यालय सांप्रदायिक आधार पर बनाया गया था। इसी बीच में 1950 में भाषाई और धार्मिक आधार पर बंगाल का विभाजन अंग्रेजों ने कर दिया था। यह दो भागों में किया गया था एक भाग पश्चिम बंगाल का हो गया दूसरे को पूर्वी बंगाल कहा गया। इसमें पूर्वी बंगाल में मुसलमान बहुसंख्यक हो गए। इस विभाजन का हिंदुओं ने बहुत जोरदार तरीके से विरोध किया था लेकिन मुसलमान इस पर कहीं न कहीं मौन सहमत थे। तब ही यह तो स्पष्ट हो गया कि पूर्वी बंगाल में मुसलमानों का बहुमत हो गया।

धार्मिक और भाषाई आधार पर बंगाल के विभाजन का हमें पहला सबूत तब मिला जब 1906 पूर्वी बंगाल में स्थित ढाका में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना हो गई। हम जानते ही हैं कि इसके पहले ही 1885 में कांग्रेस का निर्माण हो चुका था। इसलिए अब किसी अन्य दल की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। कांग्रेस के तीसरे अधिवेशन में ही एक मुसलमान ही इसकी अध्यक्षता कर रहे थे। कांग्रेस भारत के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व कर रही थी उसके रहते हुए अलग एक मुस्लिम दल की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती किंतु फिर भी ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना 1906 में कर दी गई। इसी की अंतिम परिणीति हमें देश के विभाजन के रूप में देखने को मिली।

ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के संस्थापकों में ढाका के नवाब सलीम उल्ला, आगाखान और मोहसिन उल मुल्क थे। लखनऊ इसका मुख्यालय बनाया गया और आगाखां इसके प्रथम अध्यक्ष रहे। मुस्लिम लीग की स्थापना के पहले ही 1 अक्टूबर 1906 को आगा खान के नेतृत्व में मुसलमानों का एक शिष्टमंडल शिमला में लॉर्ड मिंटो से मिला था। वहलार्ड मिंटो उस समय यहां का गवर्नर हुआ करता था और इस शिष्टमंडल ने मिंटू से कुछ मांगे की। जैसे केंद्रीय प्रांतीय और स्थानीय निकायों में निर्वाचन हेतु मुसलमानों के लिए विशिष्ट स्थिति दी जाए। राष्ट्रीय आंदोलन में हिन्दू मुसलमान एकता को रोकने के लिए उन्होंने अब मुसलमान विरोध की नीति में थोड़ा परिवर्तन करना उचित समझा इसलिए उन्होंने मुसलमानों का कुछ सहयोग करने का विचार बनाया। इसलिए मिंटू ने मुसलमानों को यह आश्वासन दिया कि उनके राजनीतिक अधिकार और अन्य हितों की भारत में रक्षा की जाएगी। इस समय अंदर से अंग्रेजों ने यह भी सोचा था कि इसी बहाने हिंदू और मुसलमान को आपस में बांट दिया जाएगा।

अब आपको बताता हूं कि कांग्रेस और लीग के दर्शन में शुरुआती अंतर क्या-क्या था! 19०6 के कोलकाता अधिवेशन में कांग्रेस ने स्वशासन की मांग की, बंग-भंग यानी बंगाल विभाजन की निंदा की और बंगाल विभाजन के विरोध में जो बहिष्कार आंदोलन चलाया जा रहा था उसका समर्थन किया। उधर लीग ने सरकार के प्रति अपनी निष्ठा जताई, बंग भंग का समर्थन किया और बहिष्कार की निंदा की।

ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के शुरुआती कार्यक्रम के बारे में आपको बता दूं कि वह क्या क्या थे! इनमें ब्रिटिश सरकार के प्रति मुसलमानों की निष्ठा को बढ़ाना, मुसलमानों के राजनीतिक अधिकारों की रक्षा करना तथा उनका विस्तार करना। इसके लिए राजनैतिक दल की आवह्यकता समझी गयी।

पृथक निर्वाचन की मांग इस आधार पर कि मुसलमान विशिष्ट है, इसके लिए शिष्टमंडल शिमला में जाकर पहले ही मांग कर के आया ही था बता चुका हूं। 1909 में जब अंग्रेजों ने इस स्थिति को देखा तब झट अपनी तरफ मिलाने के लिए मुसलमानों को पृथक निर्वाचन दे दिया। हम कहते हैं कि 1909 मार्ले मिंटो सुधार द्वारा मुसलमानों को पृथक निर्वाचन मिल गया। इसे हम पाकिस्तान के निर्माण का प्रथम चरण मानते हैं क्योंकि यहां से यह स्पष्ट हो जाता है कि मुसलमान अलग है, इसलिए उन्हें अब स्पेशल उपचार मिलना शुरू हो गया था।

इस पृथक निर्वाचन का कांग्रेस ने बहुत जोरदार तरीके से विरोध किया। कांग्रेस का कहना था कि हिंदू मुस्लिम एक है। इनमें अलग-अलग निर्वाचन क्यों!

हम जानते हैं कि 1911 में बंगाल विभाजन रद्द कर दिया गया था तब मुसलमानों ने इसका विरोध किया था। उन्होंने कहा कि बंगाल का एकीकरण पुनः नहीं किया जाना चाहिए।

1916 में जिन्ना और तिलक के योगदान से कांग्रेस और लीग में एक समझौता हुआ जिसे लखनऊ समझौता या लखनऊ पैक्ट के नाम से जानते हैं। इन दोनों नेताओं को ऐसा लगता था कि जब तक हिंदू और मुसलमान एक नहीं होंगे तब तक भारत को स्वशासन अंग्रेज नहीं देंगे। इसलिए जिन्ना और तिलक के योगदान से यह समझौता हुआ। यहां पर हिंदू और मुसलमानों में एकता हो इसके लिए कांग्रेस ने पृथक निर्वाचन को मान्यता दे दी। यही कांग्रेस की बहुत बड़ी गलती हुई क्योंकि यहीं से पृथक निर्वाचन आगे जाकर बिल्कुल स्थाई हो गया और सांप्रदायिक आधार पर मिले पृथक निर्वाचन को कांग्रेस की मुहर भी लग गई। यह बहुत बड़ी बात हुई अर्थात सांप्रदायिक राजनीति पर भी कांग्रेस ने मुहर मार दी। यह एक गैर वाजिब मांग पर मोहर लगाना था।

अब बात कर लेते हैं मोहम्मद अली जिन्ना के बारे में। जिन्ना 1906 में लंदन से आए और कांग्रेस की सदस्यता उन्होंने ले ली थी। जिन्ना शुरू से ही पृथक निर्वाचन का कड़ा विरोध करते रहे थे। कहा जा सकता है कि ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की मांग पृथक निर्वाचन का जिन्ना कड़ा विरोध करते थे। जिन्ना को सरोजिनी नायडू ने हिंदू मुस्लिम एकता का दूत कहा था। यह शुरुआत में बहुत ज्यादा राष्ट्रवादी थे। हमेशा हिंदू मुस्लिम एकता की बात करते थे। मुस्लिम कट्टरता का विरोध करते थे। वह जिन्ना धीरे-धीरे आगे जाकर इतने ज्यादा सांप्रदायिक हो गए कि अंततः पाकिस्तान का निर्माण उन्होंने करवा दिया। जबकि पृथक निर्वाचन की मांग का विरोध करने वाले जिन्ना मुंबई से मुसलमानों के लिए आरक्षित सीट से ही चुनाव जीते थे यह बात भी सच है। ये 1913 में आगे जाकर लीग के सदस्य भी बन गए थे। उन्होंने कांग्रेस को तब छोड़ा था जब कांग्रेस ने गांधी जी के नेतृत्व में सशक्त आंदोलन चलाने का सोचा था। जब गांधी जी खिलाफत और असहयोग आंदोलन चला रहे थे तब जिन्ना ने इसकी निंदा भी की थी इनका कहना था कि मुसलमानों की कट्टरता को मत बढ़ाइए। उनका कहना था कि खिलाफत आंदोलन जो चल रहा है उसे भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का कोई भी संबंध नहीं है, लेकिन यह आंदोलन तो चला ही। खिलाफत और असहयोग आंदोलन में हिंदू और मुसलमान तथा राष्ट्रीय आंदोलन में हिंदू और मुसलमान साथ-साथ आ गए, कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहे। यह 1919 से 22 तक चला था खिलाफत आंदोलन। इसमे ऑटोमन साम्राज्य के राजा की रक्षा की जाए, ऑटोमन राजा के साथ अन्याय ना किया जाए ऐसा उद्देश्य यह था जबकि स्वतंत्रता आंदोलन देश की स्वतंत्रता के लिए चलाया जा रहा था। यहां पर भी देखा जाए तो मुसलमानों का दृष्टिकोण सांप्रदायिकता था क्योंकि खिलाफत आंदोलन मुसलमानों के लिए था इसका भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से कोई मतलब भी नहीं था। यह तो तुर्की के खलीफा के साथ कैसा व्यवहार किया जाए इस बाबत चलाया जा रहा था। अब चूंकि यह दोनों आंदोलन संयुक्त थे इसलिए हिंदू और मुस्लिम साथ साथ लड़ रहे थे

इस दौरान मुस्लिम नेताओं ने कई फतवे जारी किये, कई धार्मिक चिन्हों का भी प्रयोग किया। इसलिए धीरे-धीरे संप्रदायिकता बढ़ने लगी। 1928 में नेहरू रिपोर्ट प्रस्तुत हुई, जिसे जिन्ना ने हिंदू हितों का दस्तावेज बता दिया। हालांकि यह रिपोर्ट सर्वदलीय सम्मेलन के बाद बनी थी, फिरभी उसे जिन्ना ने हिंदू हितों का दस्तावेज कहा और अपनी 14 सूत्री मांगे प्रस्तुत की थी, जिसमें उन्होंने मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन व्यवस्था जारी रहे ऐसी मांग की थी। अब यहां समझ सकते हैं कि जो व्यक्ति अभी तक पृथक निर्वाचन की मांग का कट्टर विरोधी था वह आज इस मांग का समर्थन करने लगा था। बड़ी अजीब स्थिति है कि जो मुस्लिम नेता शुरुआत में राष्ट्रवादी था वह अब कट्टरवादी होना शुरू हो गया और अपने को विशिष्ट भी मानने लगे और अंततः वे सभी नेता संप्रदायिकता के शिकार हो जाते हैं। यहां से पूर्णता स्पष्ट है इन 14 सूत्री मांगों में स्थानीय निकायों और शासकीय सेवाओं में आरक्षण की मांग भी की थी तथा केंद्रीय विधानमंडल में एक-तिहाई मुसलमानों का प्रतिनिधित्व हो यह भी मांग की थी। पंजाब बंगाल नार्थ वेस्ट फ्रंटियर(उ0प0 सीमा प्रांत) प्रांत में कोई भी क्षेत्रीय पुनर्वितरण ऐसा न हो जो मुस्लिम बहुमत को प्रभावित करें इसी प्रकार कुल 14 मांगे थी।

1932 के कम्युनल अवार्ड ने जिन्ना के अधिकतर सुझावों को मान लिया। इसलिए अब यहां से जिन्ना लगभग मुद्दाविहीन हो गए। अब उनके पास कोई मुद्दा नहीं बचा था, सो इस दौरान वे इंग्लैंड चले गए।

इस समय के आसपास सविनय अवज्ञा आंदोलन भी चल रहा था। इसमें कुछ मुस्लिम युवाओं की भागीदारी भी हमें देखने को मिलती है। कह सकते हैं कि 1930 के आसपास मुस्लिम हितों को मांगने वाले आंदोलन में कुछ ठहराव सा आया।

1930 में लीग का इलाहाबाद में अधिवेशन हुआ। यहां पर मोहम्मद इकबाल जो एक प्रसिद्ध कवि और राजनीतिक चिंतक थे ने पृथक राष्ट्र का विचार रख दिया। इसीलिए पृथक राष्ट्र का विचार रखने वाले मोहम्मद इकबाल को माना जाता है। इन्होंने अपनी अध्यक्षता से संबंधित संबोधन में कहा कि "यदि यह सिद्धांत स्वीकार कर लिया जाता है कि भारतीय मुसलमानों को अपने देश में अपनी संस्कृति और परंपराओं के पूर्ण और स्वतंत्र विकास का अधिकार है तो मेरी इच्छा है कि पंजाब उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत, सिंध, बलूचिस्तान को मिलाकर एक पृथक राज्य बना दिया जाए। इसीलिए हम इन्हें पृथक राष्ट्र का प्रवर्तक मानते हैं। यह भी मानते हैं कि मुस्लिमों के लिए एक पृथक देश बनना चाहिए की एक निश्चित अभिव्यक्ति इकबाल के भाषण में इलाहाबाद में दिखी।

1935 में कैंब्रिज में पढ़ने वाले छात्र थे चौधरी रहमत अली। इन्होंने अपने पत्र नाउ और नेवर (अभी नहीं तो कभी नहीं) में "पाकिस्तान" शब्द का प्रयोग किया था। कह सकते हैं कि पाकिस्तान शब्द देने वाले रहमत अली थे। यह शब्द भारत के पांच राजनीतिक इकाइयों के नाम के अंग्रेजी के प्रथम अक्षरों से मिलकर बनाया गया था। वह 5 इकाइयां थी जिनसे यह शब्द बना था पंजाब, उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत, कश्मीर, सिंध, बलूचिस्तान। इन पांच राजनीतिक इकाइयों के नाम का पहला अक्षर प्रयोग करके "पाकिस्तान" नाम लिया गया था।

हमने देखा की इकबाल ने अलग राज्य को जन्म दिया और उस राज्य का नाम पाकिस्तान रखे जाने का जन्म रहमत अली द्वारा हुआ।

1936 के दौरान फिर से मुस्लिम लीग की कमान जिन्ना ने मजबूती से संभाल ली और 1937 के चुनाव में मुस्लिम लीग ने भाग लिया। इन चुनावों में लीग का प्रदर्शन खराब रहा, लेकिन कांग्रेस बहुत जोरदार तरह से जीती। अब यहां से जिन्ना का रुख पूरी तरह से बदल गया। यहीं पर जिन्ना ने अपनी पराजय से भयभीत होकर गांधी जी पर हिंदू राज्य स्थापित करने का आरोप लगाया। जिन्ना समझ गया कि चुनाव के माध्यम से कांग्रेस से जीता नहीं जा सकता। मुस्लिम राष्ट्र बने ऐसा विचार धीरे-धीरे इन चुनावों ने दिमाग मे मजबूत कर दिया। यहां से जिन्ना ने सांप्रदायिकता को भड़काने शुरू कर दिया।

1939 में द्वितीय विश्व युद्ध प्रारंभ हो गया था। लिनलिथगो ने घोषणा की कि भारत भी द्वितीय विश्वयुद्ध का हिस्सा है। इसके विरोध में कांग्रेसी सरकारों ने इस्तीफा दे दिया। यह लोग जो 1934 के चुनावों से जीते थे (इस समय यह सरकार 28 महीने पुरानी थी) 22 दिसंबर 1939 को कांग्रेसी सरकारों के इस्तीफे पर लीग ने मुक्ति दिवस मनाया यह मानकर कि कांग्रेसी सरकारों अर्थात हिंदुओं के शासन से हमें मुक्ति मिल गई।

मार्च 1940 में लीग के लाहौर अधिवेशन में जिन्ना द्वारा भारत से अलग एक मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की मांग की गई। हालांकि यहां पर पाकिस्तान शब्द का प्रयोग नहीं किया गया था लेकिन एक अलग मुस्लिम राष्ट्र की मांग की गई थी। इसीलिए कहा जाता है कि मार्च 1940 के लीग के लाहौर प्रस्ताव ने भारत के मुसलमानों को अल्पसंख्यक समूह से उठाकर एक राष्ट्र बना दिया था और बाद के विकास-क्रम ने जिन्ना को उनके एकमात्र प्रवक्ता के रूप में पेश कर दिया। यही से जिन्ना मुसलमानों का एकमात्र रहनुमा कहलाने लगे। इसी दौरान 1942 से 45 के दौरान भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान कांग्रेसी नेता जेल गए थे। अगस्त 42 से उनकी गिरफ्तारी शुरू हुई थी और लगभग 45 तक चला। इन 3 वर्षों तक मुस्लिम लीग ने अंग्रेजों का खूब सहयोग किया। जिसके फलस्वरुप नौकरशाही की मदद से सक्रिय जोड़-तोड़ से लीग ने असम, बंगाल और उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत में अपनी सरकार गठित कर ली अर्थात लीग बहुत मजबूत हो गई इसका मुख्य कारण यह था कि इस समय कांग्रेस के अधिकतर नेता जेल में थे।

अब यहां से बात उठने लगी कि भारत की सत्ता धीरे-धीरे स्थानांतरित किया जाना है। इसमें सबसे बड़ी रुकावट थी हिंदू और मुस्लिम के बीच विभाजन की। इस विभाजन के कारण सत्ता का सुचारु हस्तांतरण कैसे किया जाए यह महत्वपुरन बात थी। इसीलिए कांग्रेस ने रणनीतिक वार्ताओं के जरिए मुस्लिम मांग को पूरा करने का प्रयास किया अर्थात कि मुस्लिमों से बात की जाए और उनकी मांगों को समझा जाए, यदि पूरा हो की जा सकती हो तो उसे पूरा करने का प्रयास किया जाए। इसके अंतर्गत 10 जुलाई 1944 को चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने सी आर फार्मूला दिया यह फार्मूला था कि मुस्लिम लीग भारतीय स्वतंत्रता की मांग का समर्थन करें व अस्थाई सरकार के गठन में कांग्रेस के साथ सहयोगी की भूमिका निभाए दूसरी बात द्वितीय विश्व युद्ध के खत्म होने पर भारत के उत्तर पश्चिम व पूर्वी भागों में स्थित मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों की सीमा का निर्धारण करने के लिए एक कमीशन बनाया जाएगा, फिर वयस्क मताधिकार प्रणाली के आधार पर इन क्षेत्रों के निवासियों की मतगणना(जनमत संग्रह) करके भारत से उनके संबंध विच्छेद के प्रश्न का निर्णय किया जाएगा। मतगणना के पूर्व सभी राजनीतिक दलों को अपने दृष्टिकोण व प्रभाव की स्वतंत्रता होगी। चौथी बात देश विभाजन की स्थिति में रक्षा व्यापार संचार और दूसरे आवश्यक विषयों के बारे में आपसी समझौते की व्यवस्था की जाए। पांचवीं बात उपयुक्त शर्ते तभी मानी जा सकती हैं जब ब्रिटेन भारत को पूर्ण स्वतंत्रता दे दे अर्थात इन कामों के लिए आवश्यक था कि ब्रिटेन भारत को स्वतंत्रता दे।

एक तरह से कहा जाए तो यह प्रत्यक्ष रुप से पृथक पाकिस्तान की अवधारणा का ही प्रस्ताव था। इसलिए यह माना जाता है कि कांग्रेस में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पृथक राष्ट्र की अवधारणा को माना कांग्रेस के अंदर। इसी फार्मूले के आधार पर गांधीजी ने जिन्ना से वार्ता करना प्रारंभ किया जो कि असफल हुई। तब लोगों ने कहा कि गांधीजी द्वारा इस फार्मूले के आधार पर जिन्ना को बात करने के लिए निमंत्रण देना भी अप्रत्यक्ष रुप से पाकिस्तान की मांग को स्वीकार करना ही है। इसके बाद इस पर जिन्ना तैयार नहीं हुआ। बातचीत समाप्त हो गई।

वेवेल योजना 14 जून 1945 को आई। इसमें कहा गया कि भारत में सुशासन लाया जाएगा, वायसराय की कार्यकारी समिति के रूप में अंतरिम सरकार केंद्र में बनेगी जिसके सारे सदस्य भारतीय होंगे सिवाय वायसराय और कमांडर-इन-चीफ को छोड़कर, एक स्थाई संविधान बनेगा युद्ध के बाद, कहा गया कि रक्षा को छोड़कर सभी विभाग भारतीयों के पास होंगे, अंतरिम सरकार में हिंदू और मुसलमान दोनों को संतुलित प्रतिनिधित्व मिलेगा। इसी योजना को अनुमोदित कराने के लिए शिमला सम्मेलन बुलाया गया था। 25 जून 1945 को यह सम्मेलन बुलाया गया था हालांकि यह सम्मेलन जिन्ना के अड़ियल रुख की वजह से विफल हो गया क्योंकि यहां पर जिंदा ने मांग रखी कि एकमात्र मुस्लिम लीग को ही मंत्रिमंडल के सभी मुसलमान सदस्यों को मनोनीत करने का अधिकार दिया जाए अर्थात मंत्रिमंडल में जो भी मुस्लिम सदस्य शामिल होंगे उन्हें मनोनीत करने का अधिकार केवल अधिकार मुस्लिम लीग को होगा। कांग्रेस ने लीग की इस मांग को खारिज कर दिया क्योंकि अगर कांग्रेस इस मांग को मानती तो इसका सीधा सा अर्थ क्या होता कि कांग्रेस यह स्वीकार कर लेती कि कांग्रेस केवल हिंदुओं की पार्टी है जो कि इस सम्मेलन के दौरान बार-बार जिन्ना कह भी रहे थे। जबकि वास्तविकता यह है कि कांग्रेस कभी किसी एक समुदाय की पार्टी रही ही नहीं इसलिए कांग्रेस कैसे खुद को हिंदू दल कहा जाना पसंद करती, वह भी तब जब कांग्रेस का अध्यक्ष उस समय मुसलमान ही था। उनका नाम था मौलाना अब्दुल कलाम आजाद जी जो बेहद राष्ट्रवादी व्यक्ति थे। जिन्ना और मुस्लिम लीग ने कलाम साहब अक्सर गद्दार कहना शुरू कर दिया था। इन्हें कहा जाता था कि तुम हिंदुओं के हाथों बिक गए हो, तुम काफिर हो इत्यादि इत्यादि। कांग्रेस की तरफ से शिमला सम्मेलन में एक मुसलमान ही सम्मेलन को लीड कर रहा था और कांग्रेस से पूर्व से कहा भी जा रहा था कि तुम अपने को हिंदू दल घोषित करो इसलिए कांग्रेस ने इस बात का विरोध किया, इसलिए यह सम्मेलन विफल हो गया।

इसके बाद दिसंबर 1945 में भारत में आम चुनाव हुए इन चुनावों में अब स्पष्ट रुप से धर्म को आगे कर दिया गया। पाकिस्तान की मांग को आगे कर दिया गया, अल्लाह को आगे कर दिया गया, मुद्दों पर बात ही नहीं हुई, यहां सीधे-सीधे बात हो रही थी कि इस्लाम खतरे में है, इस्लाम को बचाना है। हिंदुओं के देश में मुसलमान पिस जाएंगे, मुसलमानों की मुक्ति का रास्ता एक ही है और वह है एक पृथक राष्ट्र जो पाकिस्तान होगा।

इन तमाम आधारों पर अर्थात धार्मिक आधारों पर मुस्लिम लीग ने चुनावों में वोट मांगे। इन चुनावी सभाओं में जिन्ना ने लोगों से कहा कि हमारे सामने यही अकेला विकल्प है और अकेला मुद्दा भी है कि एक बेलगाम हिंदू राष्ट्र या फिर पाकिस्तान हमें क्या चुनना है। मुसलमानों को पाकिस्तान चाहिए। हिंदुओं के राष्ट्र में उनका विकास नहीं हो पाएगा। पाकिस्तान की मांग को जिहाद के रूप में मुस्लिम लीग ने लड़ा। इस बात को मौलाना अब्दुल अब्दुल कलाम जी ने जब बंगाल में लीग के प्रदर्शन को देखा तो उन्होंने कहा कि यह चुनाव तो मुस्लिम लीग ने जिहाद के रूप में लड़ा था।

दिसंबर 1945 में भारत में आम चुनाव हुए। इसमें बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ। इसमें केंद्रीय विधान सभा की सभी मुस्लिम आरक्षित लगभग 30 सीटें लीग ने जीत ली। यदि प्रांतों की बात करें तो बंगाल में कुल 250 सीटें थी उसमें लीग ने 119 सीट जीत ली। बहुत जबरदस्त प्रदर्शन रहा। इसीलिए मौलाना ने यहां जिहाद होने की बात कही। इसके अलावा कुल मुस्लिम मतों का 93 पतिशत बंगाल में मुस्लिम लीग को मिला। पंजाब में कुल सीट 175 में से लीग ने 75 सीट जीत ली। यहां यूनियनिस्ट पार्टी का सफाया हो गया। लीग एक नंबर पर आ गई। हलाकि लीग पंजाब में सरकार नहीं बना पाई। यहां यूनियनिस्ट अकाली और कांग्रेस ने मिलकर सरकार बना ली। लेकिन बहुमत तो मिला ही था। यहां कांग्रेस तो 51 पर ही सिमट कर रह गई थी। पूरे भारत के मुसलमानों का लगभग 74.74 प्रतिशत वोट मुस्लिम लीग को मिला। कहा जा सकता है यह जो चुनाव पाकिस्तान की मांग के लिए लड़ा गया था उस चुनाव में मुसलमानों ने लगभग 75 प्रतिशत मत लीग को मिला। इएलिये इन चुनावों ने जिन्ना की व्याख्या पाकिस्तान के पक्ष में एक जनादेश के रूप में करना शुरू कर दिया। यह कहा गया कि पाकिस्तान के पक्ष में मुसलमानों ने अपना जनादेश दिया है। हालांकि उस समय बहुत लोग विभाजन के विरुद्ध थे, किंतु इस वोट के प्रतिशत को देखकर यह बात लगती है कि लीग को पाकिस्तान के नाम पर 74.4 प्रतिशत वोट कैसे मिल गया! यदि यहां लीग को कोई सफलता न मिलती तो पाकिस्तान नाम का यह आंदोलन हमेशा के लिए खत्म हो जाता क्योंकि यह इस हेतु यह यह अंतिम प्रयास था और यह चुनाव जिहाद के रूप में लड़ा गया था। इसमें धार्मिक प्रतीकों का भी इस्तेमाल किया गया था।

हालांकि इस चुनाव में वोट का अधिकार 10% लोगों को ही मिला था फिर भी यह प्रतिशत बहुत बड़ी बात है और बहुत महत्वपूर्ण भी। यह एक बहुत बड़ा सैंपल सर्वे था।अब  यहां से जबरदस्त तेजी देखने को मिली और मुस्लिम लीग के अंदर एक जबरदस्त जुनून भी इन चुनाव परिणामों ने पैदा कर दिया।

इसके बाद कैबिनेट मिशन योजना आई और फिर 16 अगस्त 1946 को जितना ने प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस मनाया हलाकि कहने को यह जन आंदोलन था पाकिस्तान की मांग के लिए लेकिन यह बदल गया भीषण नरसंहार में, जहां मुसलमानों ने हिंदुओं को कोलकाता में खूब कत्ल किया।

अंततः पाकिस्तान का निर्माण हो गया। कहा जा सकता है कि सर सैयद अहमद ने मुसलमानों को पृथक परिचय के रूप में उभारा, मोहम्मद इकबाल ने अलग राज्य होने की परिकल्पना मुसलमानों के समक्ष रखी तथा रहमत अली ने उस राष्ट्र का नाम पाकिस्तान दिया और इस काम को जिन्ना ने पूरा कर दिया।


(निखिलेश मिश्रा)

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