वामपंथी और दक्षिणपंथी विचारधारा का अर्थ

  
भारत में राजनीति का इतिहास बहुत ही गहरा है जिसके बारे में बहुत कम लोग ही जानते हैं। मुख्यतः लोगों को सिर्फ इतना ही पता है कि हिंदुस्तान में राजनीति केवल किन्ही दो पार्टियों कि व्यक्तिगत लड़ाई है और यह इन्हीं दो पार्टियों तक ही सिमित है। भारत वो देश है जहाँ के हालात बहुत ही भिन्न रहे फिर वो चाहे हिन्दू राजाओं का दौर हो, मुस्लिम साम्राज्य का दौर हो या फिर अंग्रेजी शासन का दौर हो।
 
अगर हम इन दौर का मूल्यांकन करें तो यहाँ भी भारत दूसरों के द्वारा थोपी हुई विचारधारा के अधीन ही रहा जिसका कारण था राष्ट्रवाद की भावना का ना होना और देश के अपने ही लोगों में वैचारिक मतभेद। वामपन्थ और दक्षिणपन्थ इन दो शब्दावलियों की उत्पत्ति पर नजर डालें तो ये फ़्रांस की क्रांति जो सन 1789 में हुई थी वहाँ से जन्मी हैं। फ़्रांस की क्रांति के बाद वहाँ की संसद में दो अलग धड़ बटे जिनको Left Wing वामपन्थी और Right Wing दक्षिणपन्थी कहा गया। वामपन्थियों को संसद में बाँयी तरफ और दक्षिणपन्थीयों को दाँयी तरफ बैठाला गया। यही से ये दोनों विचारधारायें तैरकर भारतवर्ष की जमीन तक आ पहुंची। पर आज भी ‘भारतीय संसद’ में दाँये और बाँये तरफ बैठने का कोई प्रावधान नहीं है। वामपंथी - इस विचारधारा का असल मलतब है समाज में पिछड़े लोगों को बराबरी पर लाना।
 
यह विचारधारा धर्म, जाती, वर्ण, समुदाय, राष्ट्र और सीमा को नहीं मानती ; इसका वास्तविक कार्य है पिछड़ते लोगों को एक साथ एक मंच पर लाना। यह विचारधारा उन लोगों के प्रति सहानुभूति रखती है जो किसी कारणवश समाज में पिछड़ गए हों, शक्तिहीन हो गए हों या उपेक्षा का शिकार हों ऐसे में ये वामपंथ विचारधारा उन सभी पिछड़े लोगों की लड़ाई लड़ती है और उनको सामान अधिकार देनें की मांग को रखती है। धर्मनिरपछिता भी इनका एक मुख्य बिंदु है। दक्षिणपंथी - ये विचारधारा वामपन्थ के ठीक विपरीत है जो विश्वास करती है धर्म में, राष्ट्र में और अपने धर्म से जुड़े रीति रिवाजों में। यह वो विचारधारा है जो सामाजिक स्तरीकरण या सामाजिक असमता को अपरिहार्य, प्राकृतिक, सामान्य या आवश्यक मानते हैं। इनकी खासियत यह है कि ये समाज की परम्परा, अपनी भाषा, जातीयता, अर्थव्यवस्था और धार्मिक पहचान को बढ़ाने की चेष्टा करते हैं।
 
दक्षिणपन्थी की ये धारणा है कि प्राकृतिक नियमों के साथ खिलवाड़ नहीं किया जाना चाहिए और समाज को आधुनिकता के अलावा अपने पुराने रिवाजों को साथ लेकर भी चलना चाहिये। दक्षिणपन्थ की ये विचारधारा निश्चित तौर पर वामपन्थियों की तरह मीठी और लुभावनी नहीं लगती इनमें कड़वाहट का भाव तो है मगर इसकी जमीनी सच्चाई बहुत ज्यादा मजबूत है। रोमन साम्राज्य में ग्लेडियेटर्स के बीच लड़ाई काफ़ी लोकप्रिय होती थी और यह आम जनता के मनोरंजन का एक बड़ा साधन होता था। ग्लेडियेटर्स अक्सर ग़ुलाम होते थे और उन्हें अखाड़ों में उतारने वाले उनके मास्टर या मालिक समाज के रईस हुआ करते थे। 1779 में फ्रांस की नेशनल असेंबली दो धड़ों में बंट गई थी, जिनमें से एक लोकतांत्रिक व्यवस्था की मांग कर रहा था और दूसरा राजशाही के समर्थन में था। यह मांग जब आंदोलन का रूप लेने लगी तो तत्कालीन सम्राट लुई-16 ने नेशनल असेंबली की एक बैठक बुलाई जिसमें समाज के हर तबके के प्रतिनिधि शामिल हुए।
 
इस बैठक में सम्राट के समर्थकों को सम्राट के दाईं और क्रांति के समर्थकों को बाईं ओर बैठने को कहा गया था। राजनीति में विचारधारा के आधार पर पहले औपचारिक बंटवारे की शुरुआत इसी बैठक व्यवस्था से मानी जाती है। तब राजशाही समर्थकों को दक्षिणपंथी (राइटिस्ट या राइट विंग) और विरोधियों के वामपंथी (लेफ्टिस्ट या लेफ्ट विंग) कहा गया था। फ्रेंच नेशनल असेंबली में दाईं तरफ बैठने वाले लोग कुलीन, कारोबारी और धार्मिक तबके से थे, जबकि बाईं तरफ बैठने वाले ज्यादातर लोग आम नागरिक थे। यहां सम्राट के दाईं ओर बैठे यानी दक्षिण पंथ के लोग राजशाही के साथ-साथ स्थापित सामाजिक-आर्थिक परंपराओं के हिमायती थे। कुल मिलाकर ये अपनी संपत्ति और रसूख को कायम रखना चाहते थे, वहीं सम्राट के बाईं तरफ जुटे लोग यानी वाम पंथी सामाजिक समानता और नागरिक अधिकारों की मांग कर रहे थे। यह भी एक वजह है कि दक्षिणपंथियों को पूंजीवादी और वामपंथियों को समाजवादी माना जाता है। दक्षिणपंथी चूंकि बदलावों के विरोधी थे सो आगे चलकर ये कंजर्वेटिव और बदलाव के समर्थक वामपंथी प्रगतिवादी कहलाए।
 
समय के साथ यह राजनीतिक धारणा फ्रांस से निकलकर दुनिया के और देशों में भी पहुंची, हालांकि हर देश में इसका स्वरूप अलग-अलग है। मोटे तौर पर यह वर्गीकरण इसी बात पर हुआ कि कोई संगठन या राजनैतिक दल पूंजीवादी व्यवस्था में बदलावों का समर्थन किस हद तक करता है। वहीं यूरोप में कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंजेल्स जैसे लेखकों ने वामपंथी विचारधारा के सिद्धांतों को और स्पष्ट किया। इन दोनों ने 1848 में कम्यूनिस्ट मैनिफेस्टो लिखा था, जिसमें पूंजीवाद की खामियां बताते हुए पूरी दुनिया के मजदूरों से उसके खिलाफ एकजुट होने का आह्वान किया गया था। इस तरह लेफ्टिस्ट फिर कम्यूनिस्ट भी कहलाने लगे। आज लेफ्ट को उदारवाद, समूहवाद, धर्मनिरपेक्षता और राइट को अथॉरिटी, व्यक्तिवाद और धार्मिक कट्टरता से जोड़कर देखा जाता है। हालांकि आखिर में यह बहस सामाजिक बराबरी और गैर-बराबरी की ही है।
 
 
-निखिलेश मिश्रा

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