सागर की तरह दूसरे को बढ़ते हुए देख उमड़ने वाला ही सज्जन है


भगवान् श्रीराम जी ने विभीषणजी को कहा है कि नौ जगह मनुष्य की ममता रहती है, माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार में जहाँ जहाँ हमारा मन डूबता है वहाँ वहाँ हम डूब जाते हैं इन सब ममता के धागों को बट कर एक रस्सी बना लो।
जननी जनक बंधु सुत दारा,
तनु धनु भवन सुहृद परिवारा।
सब के ममता ताग बटोरी,
मम पद मनहि बाँध बरि डोरी।
अस सज्जन मम उर बस कैसें,
लोभी ह्रदयं बसइ धनु जैसे।

सज्जन हनुमानजी कहते हैं, जो बोलते, उठते, सोते, जागते हरि नाम लेता है, भगवान का सुमिरन करता है वह सज्जन है। सागर की तरह दूसरे को बढ़ते हुए देख उमड़ता हो वो सज्जन है। जो सबकी ममता प्रभु से जोड़ दे, प्रभु के चरणों में छोड़ दे "सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणंब्रज" वह सज्जन है। भगवान् बोले ऐसे सज्जन से हनुमानजी हठपूर्वक मित्रता करते हैं।
 
एहि सन हठि करिहउँ पहिचानि।
साधु ते होइ न कारज हानी।।
 
पूत बन कर क्यों नहीं आये? श्री हनुमानजी महाराज जब भगवान् श्रीरामजी के दूत बन कर जानकी जी के पास गये तो माँ ने यही प्रश्न किया, तुम हो कौन? अपना पता व परिचय दो, तो हनुमानजी ने अपने परिचय में इतना ही कहा-
 
"रामदूत मैं मातु जानकी, सत्य सपथ करूणा निधान की"
 
अपने परिचय में हनुमानजी यही बोले ,”माँ मैं भगवान् श्रीरामजी का दूत हूँ।” हनुमानजी की वाणी सुनकर माँ ने कहा दूत बन कर क्यों आये हो भैया ! तुम तो पूत बनने के योग्य हो, पूत बन कर क्यों नहीं आये? हनुमानजी बोले, “पूत तो आप बनाओगी तभी तो बनूँगा।” हनुमानजी ने इतना कहा तो जानकी जी, आगे जब भी बोलीं, ‘हमेशा पूत शब्द का ही प्रयोग किया है।
 
"सुत कपि सब तुमहि समाना" इसके बाद भगवान् भी बोले, "सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं" क्योंकि पुत्र का जो प्रमाण पत्र है वह माँ देती है, भगवान् अगर पहले पुत्र कह कर संबोधित करते तो जगत की व्यवहारिक कठिनाई खड़ी हो जाती, क्योंकि पुत्र तो माँ के द्वारा प्रमाणित होता है, क्योंकि माँ ही तो बोलेगी कि मैंने जन्म दिया है।

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