समस्त ब्रह्माण्ड ब्रह्म का एक भाग मात्र है


स वेत्ति विश्वं न च तस्यास्ति वेत्ता ॥  (श्वेताश्वतरो०) 

वह ब्रह्म सारे विश्व को जानता है, परन्तु उसको पूर्णतः जानने वाला कोई नहीं है। और उस अनन्त ब्रह्म को जीव जान भी कैसे सकता है ? 

पादो अस्य विश्वा भूतानि (यजु० ३१।३) 

यह समस्त ब्रह्माण्ड तो ब्रह्म का एक भाग मात्र है । जब इसका भी हमें पूर्ण ज्ञान नहीं है तो ब्रह्म का कैसे सम्भव है । और सूर्य, अग्नि, वायु आदि दिव्य शक्ति- सम्पन्न देवों में व्याप्य-व्यापक भाव तथा नियाम्य-नियामक भाव से ब्रह्म की मीमांसा करनी चाहिए । अतः ब्रह्म का चिन्तन करते हुए अहंकार रहित होकर अपने ज्ञान को बढ़ाने में सतत विरत अवश्य रहना चाहिए।

न तं विदाथ य इमा जजान, अन्यद् युष्माकमन्तरं बभूव ॥ (यजु० १७।३१) 

अर्थ—जो तुम्हारे आत्मा में भी व्यापक है, उस सृष्टिकर्त्ता को तुम नहीं जानते । 

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥ (ऋ० १।१६४।२०) 

अर्थात् जीव और ब्रह्म दोनों चेतन=सुपर्ण, व्याप्य-व्यापक भाव से संयुक्त=सखा हैं । उनमें एक प्रकृतिरूपी वृक्ष के फलों को भोगता है, और दूसरा ब्रह्म न भोगता हुआ साक्षी मात्र रहता है ।

स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम् ॥ (य० ४०।८) 

अर्थात् वह परब्रह्म सर्वत्र व्यापक सर्वशक्तिमान्, सब प्रकार के शरीरों से रहित, अव्रणम्=छिद्र रहित होने से अखण्डित व निरवयव, अस्नाविरम्=स्नायु आदि आवरणों के बन्धन में न आने वाला, शुद्धम्=राग, द्वेषादि से रहित होने से सदा पवित्र, अपापविद्धम्=पापाचरण से सदा मुक्त है । 

‘आत्मना विन्दते वीर्यम्’ 

आत्मज्ञान से बल प्राप्त करता है । और उस बल से ब्रह्म के पद (मोक्ष) को प्राप्त किया जाता है । क्योंकि अन्यत्र कहा गया है कि—

“नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः।” 

इससे स्पष्ट है कि ब्रह्मविद्या से आत्मिक बल प्राप्त होता है और तत्पश्चात् मोक्ष प्राप्त होता है।

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