धर्म के लिए अलग से कर्म करने की आवश्यकता नहीं

 
धर्म के लिए अलग से कर्म करने के वजाय प्रत्येक कर्म को धर्ममय करना सीखेंआज हमारी प्रार्थना कार्य बन कर रही गई है होना यह चाहिए प्रत्येक कार्य प्रार्थना जैसा हो जाए इस युग में आज हमने धर्म को भी इसी दृष्टि से देखना शुरू कर दिया है साल में एक धार्मिक आयोजन या अनुष्ठान रुपी क़िस्त जमा कर, साल या 6 महीने के लिए निश्चिन्त हो जाते हैं
 
साल में एक बड़ा आयोजन या पूजा करने की वजाय प्रत्येक कर्म को, व्यवहार को , आचरण को धर्ममय करना सीखें। माता पिता, गुरु और समाज ने हमें जो कर्तव्य स्वरूप उपकार किये हैं उनके प्रति उपकार करके तथा वही कर्तव्य अपने संतान के लिए करके ऋण मुक्त हों। हमारा व्यवहार, आचरण, हमारा बोलना, सुनना, देखना, सोचना सब इतना लयवद्ध और ज्ञानमय हो कि ये सब अनुष्ठान जैसे लगने लग जाएँ धर्म के लिए अलग से कर्म करने की आवश्यकता नहीं है अपितु जो हो रहा है उसी को ऐसे पवित्र भाव से करें कि वही धर्म बन जाए।

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