श्राप और वरदान का रहस्य क्या है

 
हम पौराणिक कथाओं में प्रायः यह पढ़ते-सुनते आये हैं कि अमुक ऋषि ने अमुक साधक को वरदान दिया या अमुक को श्राप दिया जन साधारण को या आज के तथाकथित प्रगतिवादी दृष्टिकोण वाले लोगों को सहसा विश्वास नहीं होता कि इन पौराणिक प्रसंगों में कोई सच्चाई भी हो सकती है।

यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो हम पायेंगे कि श्राप केवल मनुष्यों का ही नहीं होता, जीव-जंतु यहाँ तक कि वृक्षों का भी श्राप देखने को मिलता है वृक्षों पर आत्माओं के साथ-साथ यक्षदेवों का भी वास होता है।

स्वस्थ हरा-भरा वृक्ष काटना महान पाप कहा गया है प्राचीन काल से तत्वदृष्टाओं ने वृक्ष काटना या निरपराध पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं को मारना पाप कहा गया है इसके पीछे शायद यही कारण है उनकी ऊर्जा घनीभूत होकर व्यक्तियों का समूल नाश कर देती है।

चाहे नज़र दोष हो या श्राप या अन्य कोई दोष इन सबमें ऊर्जा की ही महत्वपूर्ण भूमिका है किसी भी श्राप या आशीर्वाद में संकल्प शक्ति होती है और उसका प्रभाव नेत्र द्वारा, वचन द्वारा और मानसिक प्रक्षेपण द्वारा होता है। रावण इतना ज्ञानी और शक्तिशाली होने के बावजूद उसे इतना श्राप मिला कि उसका सब कुछ नाश हो गया। महाभारत में द्रौपदी का श्राप कौरव वंश के नाश का कारण बना। वहीँ तक्षक नाग के श्राप के कारण पांडवों के ऊपर असर पड़ा। गांधारी का श्राप श्रीकृष्ण को पड़ा जिसके कारण यादव कुल का नाश हो गया गान्धारी ने अपने जीवन भर की तपस्या से जो ऊर्जा प्राप्त की थी उसने अपने नेत्रों द्वारा प्रवाहित कर दुर्योधन को वज्र समान बना डाला था। अगर इस पर विचार करें तो गांधारी की समस्त पीड़ा एक ऊर्जा में बदल गई और दुर्योधन के शरीर को वज्र बना दिया वही ऊर्जा कृष्ण पर श्राप के रूप में पड़ी और समूचा यदु वंश नाश हो गया।
 
श्राप एक प्रकार से घनीभूत ऊर्जा होती है जब मन, प्राण और आत्मा में असीम पीड़ा होती है तब यह विशेष ऊर्जा रूप में प्रवाहित होने लगती है और किसी भी माध्यम से चाहे वह वाणी हो या संकल्प के द्वारा सामने वाले पर लगती ही है। श्राप के कारण बड़े बड़े महल, राजा-महाराजाओं, जमीदारों का नाश हो गया महल खंडहरों में बदल गये और कथा-कहानियों का हिस्सा बन गये। इसलिए अपने स्वार्थ में अंधे होकर वासनाओं के वसीभूत होकर ऐसा काम न करें की उसका सब कुछ उजाड़ जाय यदि किसी को उजाड़ोगे तो निश्चित ही उजड़ जाओगे आह लग गयी तो इसी जन्म में ही उजड़ जाओगे ,वह दूसरे जन्म का इन्तजार नहीं करेगा
 
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृते कर्म शुभाशुभम् ।
नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ॥ 
(शिवपुराण ५.११.२)

किये गगये शुभ एवं अशुभ कर्मों का कभी(कई कल्पों तक ) क्षय नहीं होता है, उसे अवश्य ही भोगना पड़ता है।

आदित्य-चन्द्रावनिलोनलश्च
धौर् भूमिर् आपो ह्रदयं यमश्च ।
अहश्च रात्रिश्च उभे च सन्ध्ये
धर्मोपि जानाति नरस्य वृत्तम् ।। १० ।।
 
सूर्य, चन्द्र, वायु, अग्नि, आकाश, पृथ्वी, जल, ह्रदय, यम, दिन और रात, सांझ और सवेरा और स्वयं धर्म मनुष्यके आचरण को जानते हैं, यानी मनुष्य अपना कोई विचार या कर्म इन से छिपा नहीं सकता।

न भुक्तं क्षीयते कर्म कल्प कोटि शतान्यपि ।
अवश्यमेव भोक्तब्यम् कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥

सैकड़ों करोड़ कल्पों के बीत जाने पर भी बिना कर्मों का फल भोगे कर्म समाप्त नहीं होते जो कुछ भी अच्छा या बुरा कर्म किया है उसका तदनुसार फल तो भोगना ही पड़ेगा। इसीलिए ईश्वर से नहीं बल्कि अपने द्वारा किये जा रहे दुष्कर्मों से मनुष्य को डरना चाहिए ईश्वर ने तो
 
कर्म प्रधान विश्व करि राखा ।
जो जस करइ सो तस फल चाखा॥

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