हमें अपनी खुशी के साथ-साथ लोगों के हित के लिये भी काम करना चाहिए
संसार का हर व्यक्ति समूहों का उपयोग तो करना चाहता है पर उसके लिये त्याग
कोई नहीं करता यही कारण है कि पूरे विश्व में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक
तथा धार्मिक क्षेत्रों में भारी तनाव व्याप्त है। आपसी विरोध समूह को नष्ट कर देता है। इस
धरती पर अधिकतर जीव समूह बनाकर चलते हैं समूह बनाकर चलने की प्रवृत्ति
अपनाने से मन में सुरक्षा का भाव पैदा होता है मनुष्य का जिस तरह का दैहिक
जीवन है उसमें तो उसे हमेशा ही समूह बनाकर चलना ही चाहिए।
जिन व्यक्तियों
में थोड़ा भी ज्ञान है वह जानते हैं कि मनुष्य को समूह में ही सुरक्षा
मिलती है जब इस धरती पर मनुष्य सीमित संख्या में थे तब वह अन्य जीवों से
अपनी प्राण रक्षा के लिये हमेशा ही समूह बनाकर रहते थे। जैसे
जैसे मनुष्यों की संख्या बढ़ी वैसे अहंकार के भाव ने भी अपने पांव पसार
दिये अब हालत यह है कि राष्ट्र, भाषा, जाति, धर्म और वर्णों के नाम पर अनेक
समूह बन गये हैं उनमें भी ढेर सारे उप समूह हैं इन समूहों का नेतृत्व जिन
लोगों के हाथ में है वह अपने स्वार्थ के लिये सामान्य सदस्यों का उपयोग
करते हैं। आधुनिक युग में
भी अनेक मानवीय समूह नस्ल, जाति, देश, भाषा, धर्म के नाम पर बने तो हैं पर
उनमें संघभाव कतई नहीं है। संसार का हर व्यक्ति समूहों का उपयोग तो करना
चाहता है पर उसके लिये त्याग कोई नहीं करता यही कारण है कि पूरे विश्व में
सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा धार्मिक क्षेत्रों में भारी तनाव व्याप्त
है।
यजुर्वेद में कहा गया है कि-
सम्भूर्ति च विनाशं च यस्तद्वेदोभयथ्सह।
विनोशेन मृतययुं तीत्वी सम्भूत्यामृत मश्नुते॥
हिन्दी
में भावार्थ-जो संघभाव को जानता है वह विनाश एवं मृत्यु के भय से मुक्त हो
जाता है इसके विपरीत जो उसे नहीं जानता वह हमेशा ही संकट को आमंत्रित करता
है।
वाचमस्तमें नि यच्छदेवायुवम्।
हिन्दी में भावार्थ-हम ऐसी वाणी का उपयोग करें जिससे सभी लोग एकत्रित हों हृदय
में संयुक्त या संघभाव धारण करने का यह मतलब कतई नहीं है कि हम अपनी समूह
के सदस्यों से सहयोग या त्याग की आशा करें पर समय पड़ने पर उनका साथ छोड़
दें हमारे देश में संयुक्त परिवारों की वजह से सामाजिक एकता का भाव पहले तो
था पर अब सीमित परिवार, भौतिकता के प्रति अधिक झुकाव तथा स्वयं के पूजित
होने के भाव ने एकता की भावना को कमजोर कर दिया है।
हमने उस पाश्चात्य
संस्कृति और व्यवस्था को प्रमाणिक मान लिया है जो प्रकृति के विपरीत चलती
है हमारा अध्यात्मिक दर्शन व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र के क्रम में
चलता जबकि पश्चिम में राष्ट्र, समाज, परिवार और व्यक्ति के क्रम पर आधारित
है हालांकि हमारा अध्यात्मिक दर्शन यह भी मानता है कि जब व्यक्ति स्वयं
अपने को संभालकर बाद में समाज के हित के लिये भी काम करे तो वही वास्तविक
धर्म है। कहने का अभिप्राय है कि हमें अपनी खुशी के साथ ही अपने साथ जुड़े
लोगों के हित के लिये भी काम करना चाहिए।