अप्रिय स्थिति में हमारी बुद्धि हमें द्वैत का मार्ग दिखाती है


महाराज जी से भक्तों का प्रश्न और उनका उत्तर

प्रश्न: दिल साफ, भाव-विश्वास पक्का कैसे हो?
उत्तर: (महाराज जी का) यह जब से भगवान ने दुनिया बनाई है, तब से जीव भगवान से विलग हो रहा है, मन को काबू नहीं किया, हर एक योनि में मन जीव के साथ रहता है जब उससे जबरदस्ती लड़ो, तब मन हार जाय मन से हमें खुद ही लड़ना होगा और भगवान का जप-पाठ करो, जब पाप (का ) नास हो जावेगा, तब मन लगने लगेगा और दर्शन होने लगेगा नाम की धुनि खुल जावेगी लय दशा, शून्य समाधि होने लगेगी। यह सब काम धीरे-धीरे बढ़ते हैं खराब काम जल्द होते हैं।
 
बड़े-बड़े डाकू देखा जो तमाम खून किये, मारे गये, जेल गये, स्वभाव न छूटा समय आ गया सब छूट गया मस्त हो गये, इस उपदेश की एक व्याख्या उनके लिए है जो साधक है या साधक बनने के मार्ग पर हैं, जो ये भलो भांति समझते हैं की हर योनि में, हर जन्म में आत्मा और चेतना एक हो होती है और जो बदलता है वो हैं उनका वस्त्र अर्थात जीव जंतुओं, मानव का शरीर जो पाप का दमन करके लय, दशा, ध्यान, समाधी लगाने के इच्छुक हैं और इसके लिए आवश्यकता अनुसार धैर्य और सच्ची लगन भी हैकिसी पहुंचे हुए गुरु के आशीर्वाद और मार्गदर्शन से ही ये सब संभव हो सकता है परन्तु यहाँ पर हम इस उपदेश की व्याख्या महाराज जी के अनेकों सामान्य भक्तों के लिए, ग्रहस्थों के लिए सरल शब्दों में करने का प्रयत्न कर रहे हैं, जो दिल को साफ और उस परम आत्मा के लिए अपने भाव को पक्का करने के इच्छुक हैं
 
संभवतः महाराज जी यहाँ समझा रहे हैं की कभी-कभी छोटी-बड़ी परेशानियों में, अप्रिय स्थिति में हमारी बुद्धि हमें द्वैत का मार्ग दिखाती है, जिसमें हम प्रायः आसान मार्ग का चयन कर लेते हैं जो की जाने- अनजाने में हमसे बुरे कर्म करवाता है। बुरे कर्मों को भी तर्क के माध्यम से बुद्धि उचित ठहराने का प्रयत्न करती है (जैसे यदि अगले ने कुछ गलत किया है तो मैं भी कर सकता/सकती हूँ इत्यादि) लेकिन यदि हम अपनी आत्मा की आवाज़ सुने अर्थात अपने विवेक का उपयोग करें तो हमें स्पष्ट संकेत मिलता है कि क्या सही है और क्या गलत। हाँ ये अलग बात है की हमें से बहुत से लोग आत्मा की आवाज़ सुनकर अनदेखा कर देते हैं और बुरे कर्म कर जाते हैं, कर्मबंध बनाते हैं और फिर दुःख झेलते हैं, पीड़ा झेलते हैं ऐसे कर्मों का फल पाते समय और इस बीच हमारी आत्मा भी हमें कहीं ना कहीं कचोटती है
 
कभी -कभी पश्चाताप की अनुभूति भी करवाती है की हमने जो किया (प्रायः माया -मोह की अति में फंसकर या क्रोधवश, अहंकार वश, छल कपट से प्रेरित होकर इत्यादि) वो क्यों किया, क्या हम इसे टाल नहीं सकते थे ???? ऐसे समय में भक्ति में मन लगाना कठिन होता है, भजन में सच्चे भाव लाना भी आसान नहीं होता। इसके विपरीत महाराज जी हमें समझा रहे हैं की यदि हम अपने आत्मा की आवाज़ सुन सकने में सफल हो जाते है और अपने विवेक अनुसार सही कर्म करते हैं तो इसका फल हमें अच्छा मिलेगा। परन्तु ऐसा करने में -मन से, बुद्धि से कभी -कभी बहुत संघर्ष करना पड़ता है, लड़ना पड़ता है क्योंकि उस अवस्था में ये करना इतना सरल नहीं प्रतीत होता है -विवेक द्वारा दिखाए गए सही मार्ग का चयन करना। यदि हम ऐसा करने में सफल हो जाते हैं तो न केवल हमारे भाव सच्चे होंगे बल्कि हम भजन, कीर्तन, सत्संग इत्यादि में मन भी लगा सकेंगे

महाराज जी सबका भला करें!

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