रमन्ते यत्र योगिनः स रामः
🙏 मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम 🙏 (आदर्श और शील) 🙏
'राम' शब्द 'रम' धातु (क्रिया) में घंय प्रत्यय लगाने पर निष्पन्न होता है।
रम का अर्थ है : रमना, रमण करना। 'रमन्ते यत्र योगिनः स रामः'। हर क्षण योगी जिसमें रमण करते हैं, वह राम हैं। या 'रमते य: कणे-कणे स रामः'। अर्थात जो ब्रह्माण्ड के कण कण में रमता है, वह राम है।
राम की महिमा का वर्णन करते हुए किसी संस्कृत कवि ने कर्ता से लेकर संबोधन तक सभी कारकों तक हर पंक्ति के प्रथम शब्द में विलक्षणता प्रस्तुत की है--
रामो राजमणि सदा विजयते
रामम रामेशं भजे।
रामेणाभिहता निशाचर चमु:
रामाय तस्मै नमः।
रामान्नास्ति परायणं परतरं
रामस्य दासोSस्मिहम।
रामे चित्तलय: सदा विजयते
भो राम ! मामुद्धर।।
राम केवल दशरथ के पुत्र राजा राम ही थे अथवा राम परब्रह्म थे ?--इस पर चर्चा कर पाना असम्भव-सा है। समूचे विश्व की बात छोड़कर केवल भारतवर्ष और उसके वाङ्गमय की बात करें तो इस विषय में ही मत-मतान्तर देखने को मिल जाएंगे। कोई तो उन्हें 'परब्रह्म' के रूप में जपता है तो कोई उन्हें दशरथ पुत्र प्रतापी राजाराम ही मानता है। राम के समकालीन कवि महर्षि वाल्मीकि ने राम को, उनके व्यक्तित्व को, उनके कृतित्व को, पौरुष और पराक्रम और उनकी मर्यादा को जितनी निकटता और प्रामाणिकता के साथ देखा, जांचा, परखा और अपने रामायण महाकाव्य में बड़ी बारीकी से वर्णन किया, वैसा अन्यत्र नहीं मिलता।
बहरहाल, राम ने अपनी शक्ति और अपने पराक्रम के बल पर उस समय के महापराक्रमी राक्षस कुलाधिपति रावण के इतने विशाल साम्राज्य को धूल धूसरित कर पृथ्वी के समस्त राक्षस कुल का विनाश कर डाला। एक मिनट को हम यह मान भी लें कि राम परब्रह्म नहीं थे। फिर भी इससे कौन इनकार कर सकता है कि हर युग में शक्ति की ही पूजा होती आयी है।
संसार का सबसे बलशाली राजा उस समय रावण ही था, यद्यपि उसे भी किष्किंधा नरेश बाली ने पराजित कर रखा था, महाराज दशरथ के मान-सम्मान को भी बाली ने मर्दन किया था, परन्तु दशरथ और बाली के राज्य-क्षेत्र बहुत छोटे थे, सीमित थे। जबकि रावण आंध्रालय (ऑस्ट्रेलिया) से लेकर जावा, सुमात्रा, पूर्वी द्वीप समूह, लंका से लेकर दक्षिण अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के बहुत बड़े भू-भाग पर अपना आधिपत्य जमा चुका था। मध्य में लंका उसके राज्य की राजधानी थी। उसने जानबूझकर एक विशेष रणनीति के तहत भारतवर्ष के उत्तरी भू-भाग को जिसको आर्यावर्त कहा जाता था, छोड़ रखा था। लेकिन दक्षिणी भू-भाग के बहुत बड़े हिस्से पर जिसे 'दक्षिणारण्य' कहा जाता था, पर उसने अधिकार कर रखा था जिसको अपनी बहन सूर्पनखा के देखरेख में छोड़ रखा था।
रावण का एक ही उद्देश्य था पृथ्वी के समस्त भू-भागों को एक शासन, एक झंडे के नीचे लाना। "वयं रक्षाम" : उसका उद्घोष था। रक्ष-संस्कृति उसकी पहचान थी। ऐसे महान पराक्रमी शासक को पराजित कर देने वाले राम सारे संसार के लिए पूज्य बन गए।
ऐसा कहा और माना जाता है कि सूर्यवंशी राजा ययाति, दिलीप, रघु, अज दशरथ की महान परम्परा वाले कुल में जन्म लेने वाले राम विष्णु भगवान के सातवें अवतार के रूप में माता कौशल्या के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न उनके भाई थे जिन्हें वे अपने से भी अधिक स्नेह देते थे।
उनकी गाथा भारत में ही नहीं, विश्व के अनेक देशों में चारों ओर उस समय गायी जाती थी। इंडोनेशिया जो आज मुस्लिम देश है, वह आज भी राम को अपना पूर्वज मानता है। समय-समय पर विश्व का इतिहास बदला, भूगोल बदला, मान्यताएं बदलीं, परमपरायें बदली लेकिन नहीं बदले और नहीं बदलते हैं तो वे हैं पूर्वज। कभी किसी के पूर्वज नहीं बदलते।
इस पृथ्वी पर मानव को सबसे पहले नियम और नीति में बांधने के लिए मनु ने प्रयास किया था। एक मर्यादा की सीमा रेखा में मानव समुदाय को रखने का प्रयास आरम्भ किया था जिसे उनके बाद राम ने आगे बढ़ाया। उन्होंने चरित्र, और आचरण को मर्यादा में बांधने का प्रयास ही नहीं किया, बल्कि स्वयं एक राजा के रूप में, बड़े भाई के रूप में, पुत्र के रूप में और सामान्य नागरिक के रूप में उन सभी मर्यादाओं का पालन भी किया जिन्होंने सारी मानवता को उज्ज्वल मार्ग दिखाया।
राम को केवल मर्यादा की रक्षा के लिए ही नहीं जाना जाता, बल्कि उस समय के आर्य समुदाय और उनकी यज्ञ-याग जैसी श्रेष्ठ परम्पराओं को राक्षसों द्वारा नष्ट होने से भी बचाया था। धर्म, कर्म, शील, आदर्श और आचरण को सर्वोपरि मानने वाले राम ने प्रजा की भवनाओं को भी बहुत अधिक महत्व दिया। लंका के राजा रावण के वैदेही के अपहरण कर ले जाने और अशोक वाटिका में एक साधिका के रूप में सरल जीवन व्यतीत करने वाली सीता की अग्निपरीक्षा करने और एक धोबी के कहने पर अपनी गर्भवती पत्नी को गृहत्याग कराने में भी उन्होंने अधिक समय नहीं लगाया।
प्रजा-पालन और रामराज्य की स्थापना करना उनके जीवन-काल का सबसे उल्लेखनीय उदाहरण था।
अगर विचार पूर्वक देखा जाय तो राक्षसी शक्तियों का विनाश और धर्म, शील और आदर्श की मर्यादा की स्थापना के लिए ही भगवान विष्णु ने राम के रूप में अवतार लिया था। आज सारा संसार महारानी कैकेयी को राम के वनवास के लिए दोष देता है, परन्तु ऐसा नहीं है। कैकेयी महान थी। शिवजी की तरह समुद्रमंथन से निकले भयंकर विष को उन्होंने भी पिया था। राम के वनवास का सारा दोष उन्होंने अपने ऊपर ले लिया। लोक निंदा का जहर उन्होंने गले के नीचे उतार लिया। भगवान राम को ज्ञात था कि यह दिखने में काला कृत्य (परन्तु महान उद्देश्य को पूर्ण) करने को कोई सहज तैयार न होगा। इसके लिए राम ने माता कैकेयी से गुप्त मन्त्रणा करके वनवास में भेजने और स्वयं लोकनिंदा का विष पीने के लिए उन्हें सहमत करा लिया।
राम ने ऊंच-नीच की बुराई को भी कभी महत्व नहीं दिया। केवट को गले लगाया, भीलों के बीच मे रहकर, जनजातियों के लोगों को अपनाया। वननर (वानर) और भालू प्रजाति के जनजाति के लोगो से कंधे से कंधा मिलाकर उन्हें अपना मित्र बनाकर लंका पर आक्रमण किया।
अपने विरोधी को भी महत्व देना उनके व्यक्तित्व की विशिष्ट पहचान थी। रावण के पांडित्य के कारण उसको भी रामेश्वर में शिवलिंग की स्थापना करने के लिए सादर राजी कर लेना उनके व्यक्तित्व का एक विलक्षण गुण था।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने अपने जीवन के रूप में ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया है जो युगों-युगों से आदरणीय रहा है और जब तक यह पृथ्वी रहेगी, गंगा-यमुना में पावन जल प्रवाहित रहेगा, जब तक यह मानवता रहेगी तब तक उनका नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता रहेगा। संसार की हर वस्तु नष्ट होने वाली है, जो जन्मता है, उसका भौतिक अस्तित्व एक-न- एक दिन समाप्त होता ही है। पर राम और कृष्ण जैसे व्यक्तित्व कभी नष्ट नहीं होते। वे अपने कृतित्व में सदैव जीवित रहते हैं। मानव का जन्म लेकर देवत्व की ओर बढ़ना, नर से नरोत्तम और पुरुष से पुरुषोत्तम बनना ही उसकी इस धरती की परम उपलब्धि है
रामराज्य की बात तो सभी करते है, लेकिन रामराज्य है क्या और ये कैसे स्थापित होगा, ये कोई नही बताता। मोटा मोटी समझने का प्रयास करे तो, वनवास से लौट कर भगवान राम का अयोध्या नरेश के पद पर राज्याभिषेक हुआ और उनके राज में उनकी प्रजा की जो स्तिथि थी उसे ही रामराज्य कहा जाएगा। लेकिन उस वक्त प्रजा की क्या स्तिथि रही होगी, प्रजा को कितना सुख था कितना दुख था ये कैसे पता चलेगा? क्योकि, जैसा मैंने शुरू में कहा, रामराज्य की बात तो सभी करते है लेकिन वो कैसा होगा वो कोई नही बताता।
और इसीलिए, देश मे तो रामराज्य कब आएगा, कब नही आएगा ये कहना तो ज़रा मुश्किल है। लेकिन हम चाहे तो अपने भीतर (हॄदय में) रामजी को स्थापित कर रामराज्य की स्थापना कर सकते है, जिससे हमारे जीवन के समस्त शोक का नाश हो जाए और हम एक आनंददायक जीवन जिए। लेकिन ये होगा कैसे? हमारे हृदय में रामजी कैसे विराजेंगे?
अपने हृदय में रामजी स्थापित करने की चार सीढ़िया है जिनपर चढ़कर हम अपने हृदय में रामजी को स्थापित कर सकते है। जिसकी प्रथम सीढ़ी है।
*भाग - एक*
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*-शत्रुघ्न।*
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शत्रुघ्न :
रामायण के सबसे अंडररेटेड किरदार। कोई इनके बारे में ज्यादा नही जानता। नाम शत्रुघ्न है, अर्थात शत्रुओं का संहार करने वाला, "जाके सुमिरन ते रिपु नासा, नाम शत्रुघ्न वेद प्रकासा"। लेकिन पूरी रामायण में शत्रुघ्न जी कहीँ भी लड़ते भिड़ते नज़र नही आते। उत्तर रामायण में केवल एक जगह, मथुरा के राजा लवणासुर से उन्होंने युद्ध किया था और विजयी हुए थे, और उसके बाद मथुरा के राजा भी बने। इसके अतिरिक्त अन्य कहीं भी उनके युद्ध का वर्णन नही है, क्योकि वे बाहर के नही, भीतर के शत्रुओं का संहार करते है।
अब इसे ऐसे समझिए कि हमारा शरीर एक भवन है, और आत्मा यानी हम है प्रजा। और उस भवन में हमे रामजी को आमंत्रित करना है। लेकिन रामजी आएंगे कैसे? हमारे भवन पे तो 'काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, ईर्ष्या, मात्सर्य, छल, कपट, जैसे शत्रुओं का कब्जा है, और इन्ही शत्रुओं का संहार करने के लिए हमे रामजी से पहले शत्रुघ्न जी को हृदयंगम करना पड़ेगा। शत्रुघ्न जी आएंगे और हमारे शरीर के भीतर के शत्रुओं का संहार कर भवन को खाली करेंगे ताकि रामजी आ सके।
लेकिन अब प्रश्न ये है की शत्रुघ्न जी कैसे आएँगे? और आएंगे तो शत्रुओं का संहार कैसे करेंगे? इसके लिए हमे शत्रुघ्न जी की शक्ति का आव्हान करना पड़ेगा और उनकी शक्ति का नाम है- "श्रुतकीर्ति"। शत्रुघ्न जी की धर्मपत्नी का नाम है श्रुतकीर्ति। पत्नी जी को बुला लो, पति महोदय झक मार के पीछे पीछे आएंगे। श्रुतकीर्ति का मतलब होता है - "भगवान की कीर्ति का कानों से श्रवण करना"। अर्थात भगवान की कथा सुनना और उसको गुनना। अपने कानों से भगवान की कथा सुनते जाओ, यथासंभव अपने दैनिक जीवन मे, अपने चरित्र में अमल करते जाओ, अंदर शत्रुघ्न जी हमारे शत्रुओं का संहार करते जाएंगे। शरीर रूपी भवन हो गया खाली, अब बुलाओ रामजी को। लेकिन रामजी अब भी नही आएँगे।
*भाग - दो* *आपके हृदय भवन में रामराज्य स्थापना की दूसरी सीढ़ी है, शेषनाग अवतारी लक्ष्मण*
लक्ष्मण अर्थात - जिसके जीवन का केवल एक ही लक्ष्य हो वह लक्ष्मण। और लक्ष्मण जी के जीवन के एकमात्र लक्ष्य था केवल और केवल प्रभु श्रीराम जी की सेवा और समर्पण। जो न मेरे राम का, सो न मेरे काम का। माता, पिता, गुरु किसी से कोई मतलब नही।
"माता रामो मत्पिता रामचंद्र,
स्वामी रामो मत्सखा रामचन्द्र,
सर्वस्वं में रामचन्द्रो दयालु,
नान्यं जाने नैव जाने न जाने"
रामजी ही मेरी माता है, रामजी ही मेरे पिता है, रामजी ही मेरे स्वामी है, रामजी ही मेरे सखा है। रामजी के अतिरिक्त मैं और किसी को नही जानता।
मोरें सबइ एक तुम्ह स्वामी।
दीनबंधु उर अंतरजामी॥
गुर पितु मातु न जानउँ काहू।
कहउँ सुभाउ नाथ पतिआहू॥
लक्ष्मण जी का भाव बस इतना ही है कि आप रामजी के प्रिय है तो चाहे वानर भालू ही क्यो न हो आप मेरे भी प्रिय हो जाते हो। और अगर आप रामजी के विरोध में है तो फिर चाहे आप भगवान परशुराम ही क्यो न हो, मैं आप के खिलाफ शस्त्र उठाने में जरा भी संकोच नही करूँगा।
अपने प्रभु के प्रति सेवा और समर्पण का ऐसा भाव जब हमारे भीतर आ जाएगा, तब हम भी लक्ष्मण हो जाएंगे और हमारी यही अवस्था रामराज्य प्राप्ति की दूसरी सीढ़ी है।
लेकिन अब प्रश्न ये है कि हमे कैसे पता चलेगा कि हम लक्ष्मण की अवस्था को प्राप्त कर चुके है यानी हमारे जीवन लक्ष्य श्रीराम जी पर ही केंद्रित हो गया है। तो लक्ष्मण जी जब भी आएंगे अपनी शक्ति के साथ आएंगे, और लक्ष्मण जी की शक्ति है - "उर्मिला"। उर्मिला का अर्थ है - उर + मिला, अर्थात "उर (हॄदय) में भगवान से मिलने की तीव्र उत्कंठा उत्पन्न हो जाए", जब हमारा मन मष्तिष्क आठों पहर यही चिंतन करे कि "भगवान हमसे कब मिलेंगे, कहाँ मिलेंगे, कैसे मिलेंगे" तो समझो उर्मिला जी आपके हृदयरूपी भवन में आ चुकी है, और जब पत्नी जी आ जाए तो पतिदेव भी पीछे पीछे आ ही जाते है, अर्थात आपका लक्ष्य एकाग्र हो चुका है।
जब आपकी भी अवस्था ऐसी ही हो जाए तो समझिए आपने अपने हृदय भवन में रामराज्य स्थापना की दूसरी सीढ़ी सफलतापूर्वक पार कर ली है, और रामजी ने आपका आमंत्रण स्वीकार कर आपके भवन की ओर दूसरा कदम उठा दिया है।
*भाग - तीन* ========== *भरत*
अपने हृदयरूपी भवन में रामराज्य स्थापना के क्रम में पहले दो सोपानों में हमने जाना कि रामजी से पहले हमें सबसे पहले शत्रुघ्न-श्रुतकीर्ति के जोड़े को तत्पश्चात लक्ष्मण-उर्मिला के जोड़े को स्थापित करना पड़ेगा। इससे आपका हॄदय भवन आपके भीतरी शत्रुओं से रिक्त हो जाएगा और आपका लक्ष्य भी एकाग्र हो जाएगा। अब बढ़िए तीसरे सोपान पर। और आपके हॄदयभवन में रामराज्य स्थापना का तीसरा सोपान है - धर्मस्वरूप, महाराज भरत। समुद्र की भांति धीर गम्भीर और मर्यादा से बंधे रहने वाले महाराज भरत वास्तव में क्षीरसागर के ही अवतार है।
*भरत अर्थात- भरने वाले।*
"विश्व भरण पोषण जो करहीं,
ताकर नाम भरत अस होहिं"
अब भरत जी किस चीज से विश्व का भरण पोषण करते है? जिसके पास जो होगा वही तो दूसरों को देगा, और भरत जी के पास है सिर्फ एक ही वस्तु है,- राम जी का निश्छल पावन प्रेम। प्रभु श्री राम के साक्षात प्रेम विग्रह महात्मा भरत जी है। तो भरत जी जिस चीज से हमारा भरण पोषण करते है, वो है- "रामरस"। भरत जी को हॄदय में स्थापित करो, वे आपके हृदय को रामरस से लबालब भर देंगे। हमारा हॄदय जो अभी "विषयरस" से भरा हुआ है, भरत जी आते ही इसे विषयरस से खाली कर इसे रामरस से भर देंगे। बाबा तुलसीदास जी कहते है :
भरत चरित कर नेम,
तुलसी जो सादर सुनहि।
सीय राम पद प्रेम,
अवसि होई भव रस विरति I
अर्थात, भरत चरित्र का नियमित रूप से श्रवण करेंगे तो हॄदय अवश्य ही सीताराम जी के प्रेम से भर जाएगा, और भव रस से विरक्त हो जाएगा। तो हॄदय से भवरस की विरक्ति और राम रस से तृप्ति ये दोनों ही काम भरत जी करेंगे।
अब हमें कैसे पता चले कि हमारा हॄदय सचमुच में रामरस से भर चुका है अथवा नही। पहचान यही है कि भरत जी जब भी आएंगे, अपनी शक्ति के साथ आएंगे, और भरत जी की शक्ति का नाम है - "माण्डवी"। माण्डवी अर्थात, "समस्त ब्रह्माण्ड के चराचर जीवों के प्रति माँ जैसी ममता रखना"। जब हमारे हॄदय में इस ब्रम्हाण्ड में जितने भी चराचर जीव जंतु है उन सबके लिए वैसा ही प्यार, दुलार, दया, धर्म हो जैसा एक माँ की अपने बच्चे के प्रति होती है, तो समझ लीजिए महाराज भरत अपनी शक्ति माण्डवी के साथ आपके हृदय रूपी भवन में स्थापित हो चुके है। और इस अवस्था की पहचान एक ही है :
"सीया राम मय सब जग जानी,
करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी"
सारे जगत के जीवों में उसी तत्व का दर्शन हो जिसकी प्राप्ति के आप आकांक्षी हो तो समझिए आपका हॄदय रामरस से भर चुका है, और इसी के साथ तीसरा सोपान पूर्ण होता है।
*भाग-चार* *अब अपने हृदय भवन में आमंत्रित करिए रामजी को*
जब आपके हॄदयभवन में शत्रुघ्न, लक्ष्मण और भरत जी अपनी अपनी शक्तियों के संग आकर निवास करने लग जाएंगे तो अवश्य ही श्री राम भी अपनी शक्ति संग आपके हृदय में आकर निवास करने लगेंगे।
राम शब्द का अर्थ होता है- रमण करना, अर्थात "जो आपके हृदय में रमण करें वह राम". जब आप अपने हृदय में रामराज्य स्थापित करने के प्रथम तीन सोपान पार कर लेंगे तो अवश्य ही प्रभु श्री राम आपके हृदय में रमण करने लग जाएंगे।
*रामजी कौन है?*
"जो आनन्द सिंधु सुखरासी,
सीकर तें त्रैलोक सुपासी
सो सुखधाम राम अस नामा,
अखिल लोक दायक बिश्रामा"
दो घड़ी के सुख-चैन के लिए हम दिन भर माथाफोड़ी करते रहते है, शान्ति और आनन्द की एक बूंद के लिए हम तरसते रहते है, तो जो आनन्द के महासमुद्र है, वह आनन्दराशि जब आपके हृदय में रमण करने लग जाएगी तब फिर आनन्द की क्या कमी रह जाएगी।
"मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रबहु सुदशरथ अजर विहारी"
अर्थात जब रामजी हॄदय में आनन्द के समुद्र बनकर रमण करने लग जाएंगे तो आपका हॄदयभवन मंगल भवन हो जाएगा और रामजी आपके जीवन के प्रत्येक अमंगल का हरण कर लेंगे।
अब केवल एक कमी रह गई है। हर जीव को प्रारब्धजनित दैविक, दैहिक और भौतिक ताप झेलने ही पड़ते है। तो प्रारब्ध की प्रतिकूलता का जो संताप है उसे शांत करने का कार्य रामजी की शक्ति करेगी और रामजी की शक्ति का नाम है- "सीता"।
सीता का मतलब - "शीतलता प्रदान करने वाली"। जब ह्रदय में रामजी आनन्द सिंधु बनकर विचरण करने लगेंगे तो सीता मैया बाहर से शीतल छांव बनकर प्रारब्धजनित बाहरी संतापों के वेग को शांत कर देगी। गर्मी ज्यादा पड़ रही हो तो हम सूर्य के ताप को तो कम नही कर सकते किन्तु छाता लेकर तो चल सकते है, छाँव में बैठ सकते है, पंखा चला सकते है। इसी तरह जीव को जो प्रारब्ध के भोग भोगने होते है उनको हम टाल तो नही सकते किन्तु भगवद्भक्ति से उसके वेग को अवश्य कम कर सकते है।
तो प्रारब्ध के जो दुस्सह वेग है उन्हें किशोरी जी कृपा की शीतल छाँव करके शांत कर देगी, तो बाहर से भी आनन्द और भीतर तो स्वयं आनन्द सिंधु विचरण कर ही रहे है। जब आपके जीवन से सारे अमंगलों का हरण हो गया हो, आपके बाहर आनन्द हो, भीतर भी आनन्द हो, यही तो "रामराज्य" है।
बाबा तुलसीदास जी लिखते है:-
"राम राज बैठे त्रैलोका,
हरषित भए गए सब सोका
बयरु न कर काहू सन कोई,
राम प्रताप विषमता खोई
दैहिक दैविक भौतिक तापा,
राम राज नहिं काहुहि ब्यापा"
बोलिए श्री राघवेंद्र सरकार की जय।।
बोलिए श्री अयोध्या धाम की जय।