असली ज्ञानी वही है जो उस ज्ञान के अनुसार आचरण करता है

महाराज जी भक्तों को उपदेश दे रहें हैं कि: मान -अपमान फूंक दो, तब भगवान कि गोद में जाकर बैठ जाओगे। जो भगवान को सब कुछ सौंप देता है, भगवान उससे बड़े ख़ुश रहते हैं। जिसको भगवान का सच्चा भरोसा है उसे तकलीफ़ कैसे हो सकती है। जैसा की आप भक्तजनों को ज्ञात है, अहंकार का शमन करना हमारे महाराज जी के प्रमुख उपदेशों में रहा है, विशेषकर गृहस्थों के लिए।

दुर्भाग्यवश हममें से अधिकतर लोग किसी न किसी प्रकार के अहंकार से ग्रसित हैं- पैसा, ज्ञान, ओहदा, बल, जाति, धर्म, सुंदरता और ना जाने क्या क्या……. कुछ भक्तों को कभी -कभी इस बात का अहंकार भी होने लगता है (भ्रम सा हो जाता है शायद) की वो परमात्मा के या महाराज जी के बहुत बड़े भक्त हैं (वैसे ही जैसे कुछ लोगों को दिव्य ग्रन्थ इत्यादि केवल पढ़ने के बाद अहंकार हो जाता है) और फिर उनकी दूसरों भक्तों से अपेक्षा होने लगती है कि वे उनका मान रखें। उनका आदर करें। ये सब मिथ्या है। जैसे महाराज जी ने हमें समझाया है की दिव्य ग्रन्थ “केवल” पढ़ने से कुछ नहीं होता। असली ज्ञानी वही है जो उस ज्ञान के अनुसार अपना जीवन में आचरण करता है। और महाराज जी का सच्चा भक्त वही है जो उनके उपदेशों पर चलने की ईमानदार कोशिश करता हो। जब ऐसा होगा तो महाराज जी में भक्तो का मन अपने -आप लगने लगेगा।

भाव सच्चे होने लगेंगे और हाँ जब हम परोपकार करते हैं तो उसमें कोई प्रतिस्पर्धा की भावना नहीं होना चाहिए। जिसका जितना सामर्थ हो वो वैसे ही ज़रूरतमंदों की मदद करे। किसी को दिखाने की आवश्यकता नहीं है, गुणगान भी नहीं करना है। ये सब होने से अहंकार उत्पन्न हो जाता है। हमारा ऐसा कृत केवल हमारे, महाराज जी और उस परम आत्मा की बीच की बात है। ऐसे कर्मों  में यदि हमारी नीयत स्वार्थहीन है तो वो परम आत्मा इसका फल हमें जब चाहे, जैसे चाहे या जितनी बार चाहे -देगा। और देगा ज़रूर। ठीक उसी तरह की जब हम दूसरों के साथ छल कपट/चालाकी करके उन्हें कष्ट पहुंचाते हैं, अथवा अपने हाथ-पैर या सबसे अधिक पीड़ा देने वाले अपने अंग अर्थात अपने ज़बान से, अपनी वाणी से दुःख पहुंचते है (प्रायः अहंकारवश), तो भी महाराज जी देख रहे होते हैं और परम आत्मा की नज़र से तो कुछ बच ही नहीं सकता। इसलिए वो परम आत्मा इसका फल भी हमें देगा - जब चाहे , जैसे चाहे या जितनी बार चाहे -देगा। और देगा ज़रूर।

इसलिए महाराज के भक्त को अहंकार से बचना चाहिए। हमारा हित इसी में है की अहंकार के बजाय हम विनम्र रहें, अपने आप को याद दिलाते रहें कि जो भी हमको सुख -समृद्धि, पद, रूप, ज्ञान इत्यादि प्राप्त है वो जब तक है, जितना है -उस परम -आत्मा की कृपा से है। महाराज जी के आशीर्वाद से है। फलस्वरूप इसके लिए हमें उनका कृतज्ञ रहना है। जब हम मन-अपमान फूंक देंगे और विनम्र रहेंगे, हमारे भाव सच्चे होंगे (जैसे ऊपर कहा गया है) अपने -आप को महाराज जी को, ईश्वर को सौंप देंगे -इस भावना के साथ कि दुःख -सुख जो भी हमारे जीवन में है वो आप के हुकुम से है, हमें आप पर विश्वास है -तो ऐसे करने से हमें उनका आशीर्वाद मिलेगा। हमारे दुःख -सुख में वे हमारे साथ होंगे- हमारी रक्षा भी करेंगे। फिर अंततः हमारा अहित तो हो ही नहीं सकता।


महाराज जी सबका भला करें।

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