सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता
"सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता"
मनुष्य को उसका कर्म ही सुख या दुःख देता है। इस सृष्टि का आधार ही कर्म है, इसी कारण ज्ञानी महात्मा किसी को भी दोषी नहीं मानते हैं। रामचन्द्र जी स्वेच्छा से ही वनवासी बने हैं, सीताराम के चरणविंद का नित्य स्मरण ही परमार्थ है।
सखा परम परमारथु एहू।
मन क्रम वचन राम पद नेहू॥
सुख
दुःख का कारण जो अपने अन्दर ही खोजे, वह सन्त है ज्ञानी पुरुष सुख दुःख का
कारण बाहर नहीं खोजते हैं मनुष्य के सुख दुःख का नाता बाहर जगत् में कोई
नहीं है। यह कल्पना ही भ्रामक है कि मुझे कोई सुख दुःख दे रहा है ऐसी कल्पना तो अन्यों के प्रति वैर भाव जगाती है।
जानिअ तबहिं जीव जग जागा।
जब सब बिषय बिलास बिरागा ।।
इस
जगत रूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच
(मायिक जगत) से छूटे हुए हैं जगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए, जब
सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाये।
होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा।।
विवेक होने पर यह मोह रूपी भ्रम भाग जाता है तब (अज्ञान का नाश होने पर) श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम होता है। वस्तुतः
सुख या दुःख कोई दे नहीं सकता यह एक भ्रम है और मन की कल्पना मात्र है सुख
दुःख तो कर्म का ही फल है सदा सर्वदा मन को समझाओ कि उसे जो सुख दुःखानुभव
हो रहा है , वह उसी के कर्मो का फल है।
कोउ न काहु सुख दुःख कर दाता।
निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥
राम
तो परमानन्द स्वरुप हैं जो उनका स्मरण करते हैं, उन्हें दुःख नहीं होता
सुख ही होता है सो राम को दुःख होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं है राम को
कर्म का बंधन तो है नहीं, वे माया से परे हैं सो कर्म से परे हैं वे अपनी
इच्छा से ही प्रकट होते हैं जीव को अपने कर्म के कारण जन्म लेना पड़ता है,
ईश्वर स्वेच्छा से प्रकट होते हैं।
फिर
भी परमात्मा लीला करने के लिये प्रकट हुए हैं , सो कर्म की मर्यादा में
रहते हैं जगत् के सामने एक आदर्श रखते हैं कि स्वयं परमात्मा होते हुए भी
कर्म के बंधन में हैं वे स्वेच्छा से ही अवतरित हुए हैं जीव अपने कर्म से
जन्म लेता है।