हिंद की चादर

 
11 नवम्बर 1675 दोपहर बाद, दिल्ली का चांदनी चौंक, लाल किले के सामने, मुगलिया हुकूमत की क्रूरता देखने के लिए लोग इकट्ठे हो चुके थे, वो बिल्कुल शांत बैठे थे, प्रभु परमात्मा में लीन, लोगो का जमघट, सब की सांसे अटकी हुई, शर्त के मुताबिक अगर "गुरू तेग बहादुरजी" इस्लाम कबूल कर लेते है तो फिर सब हिन्दुओं को बिना किसी जोर जबरदस्ती के मुस्लिम बनना होगा।
 
गुरू जी का होंसला तोड़ने के लिए उन्हें बहुत कष्ट दिए गए तीन महीने से वो कष्टकारी क़ैद में थे। उनके सामने ही उनके सेवादारों भाई दयाला जी, भाई मति दास और उनके ही अनुज भाई सती दास को बहुत कष्ट देकर शहीद किया जा चुका था लेकिन फिर भी गुरू जी इस्लाम अपनाने के लिए नहीं माने, औरंगजेब के लिए भी ये इज्जत का सवाल था, क्या वो गिनती में छोटे से धर्म से हार जायेगा, समस्त हिन्दू समाज की भी सांसे अटकी हुई थी कि क्या होगा लेकिन गुरू जी अडोल बैठे रहे धर्म का अस्तित्व खतरे में था। एक धर्म का सब कुछ दांव पे लगा था, हाँ या ना पर सब कुछ निर्भर था। औरंगजेब लालकिले से निकल कर सुनहरी मस्जिद के काजी के पास खुद चलके आया था , उसी मस्जिद से कुरान की आयत पढ़ कर यातना देने का फतवा निकलता था।

वो मस्जिद आज भी है गुरुद्वारा शीशगंज, चांदनी चौक दिल्ली के पास पुरे इस्लाम के लिये प्रतिष्ठा का प्रश्न था। आखिरकार जालिम जब उनको झुकाने में कामयाब नही हुए तो जल्लाद की तलवार चल चुकी थी, और प्रकाश अपने स्त्रोत में लीन हो चुका था। ये भारत के इतिहास का एक ऐसा मोड़ था जिसने पूरे हिंदुस्तान का भविष्य बदल के रख दिया, हर दिल में रोष था। कुछ समय बाद गुरु गोबिंद सिंह जी ने जालिम को उसी के अंदाज़ में जवाब देने के लिए खालसा पंथ का सृजन की। समाज की बुराइओं से लड़ाई, जोकि गुरु नानक देवजी ने शुरू की थी अब गुरु "गोबिंदसिंह जी" ने उस लड़ाई को आखिरी रूप दे दिया था। दबा कुचला हुआ निर्बल समाज अब मानसिक रूप से तो परिपक्व हो चुका था लेकिन तलवार उठाना अभी बाकी था।

खालसा की स्थापना तो "गुरु नानक देव जी" ने पहले चरण के रूप में 15वी शताब्दी में ही कर दी थी लेकिन आखरी पड़ाव गुरु गोबिंद सिंह जी ने पूरा किया। जब उन्होंने निर्बल लोगों में आत्मविश्वास जगाया और उनको खालसा बनाया और इज्जत से जीना सिखाया। निर्बल और असहाय की मदद का जो कार्य उन्होंने शुरू किया था वो निर्विघ्न आज भी जारी है। "गुरु तेग बहादुर जी" जिन्होंने "हिन्द की चादर" बनकर "तिलक और जनेऊ की रक्षा की" उनका एहसान भारत वर्ष को नहीं भूलना चाहिए। ऐसे श्रेष्ठ महापुरुष के बलिदान दिवस पर कोटि कोटि नमन!

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