अध्यात्म साधना चेतना के विकास की प्रक्रिया है
किसी भी तरह का आश्वासन व्यावसायिक है, अध्यात्म में कोई आश्वासन नही होता
क्योंकि अध्यात्म की दुकानदारी नही होती जब अध्यात्म दुकानदारी हो जाता है
तो अध्यात्म वहां खत्म हो जाता है, जैसे सत्य सत्य को गवाही की ज़रूरत नही
होती। सत्य अपने आप में पर्याप्त है क्योंकि सत्य को सबूत की ज़रूरत नही होती।
हालांकि सत्य की गरीमा को वही समझ पाता है जो स्वयं सत्य के साथ है। असल
में अध्यात्म साधना चेतना की विकास की प्रक्रिया है। जाहिर है चेतना के
विकास के क्रम में आप होशियारी चालाकी से च्युत हो जाय और आप सहज सरल सरस
हो जाय जो आपके संसारी जीवन के लिए उपयोगी न हो। आपके लिए संसारिक खुशियाँ
तब है जब आप होशियारी से सांसारिक उपलब्धियां हासिल करते है।
सबसे बड़ी बात
होशियारी से आपकी बुद्धि आपकी बौद्धिकता विकसित होती है। मगर चेतना नही
चेतना विकसित होती है, आपकी सहजता से और स्वयं में सहजता तब आती है जब आप
स्वयं के प्रति ईमानदार होंगे आपके खुद की ईमानदारी से जो स्वयं के प्रति
ईमानदार होगा वह स्वाभाविक रूप से दूसरों के प्रति भी ईमानदार होगा।