अपने सामर्थनुसार ईमानदारी से चलने की कोशिश करनी चाहिए


महाराज जी भक्तों को उपदेश दे रहे हैं कि जैसे कंकरीली, पथरीली भूमि में बीज डालना व्यर्थ है, वैसे हृदय में अभिमान, कपट, राग (मोह या कहें मोह की अति), द्वेष, आदि विकार रहते जप -तप पूजन पाठ करना व्यर्थ है। अभिमान रावण है, कपट मारीच है इनको मारे बिना प्रभु से सम्बन्ध जुड़ नहीं सकता अत: पहले अपने को सबसे नीचा मानो सहन शक्ति की बड़ी जरूरत है।

महाराज जी के इस उपदेश में निहित सन्देश पर सबके लिए चलना आसान नही है विशेषकर तब, जब हममें से बहुत से लोगों में ऐसी भावनाओं घर किये हुए हैं मेरे पास उससे/ उनसे अधिक धन -संपत्ति है, मेरी जाति उससे श्रेष्ठ है, मैं ईश्वर/गुरु का सबसे बड़ा/बड़ी भक्त हूँ, मैं उससे सुन्दर हूँ, मैं उससे/उनसे अधिक (किताबी) ज्ञानी हूँ, मेरा ओहदा उससे बड़ा है, मैं उससे उम्र में बड़ा/बड़ी हूँ, मेरी संतान दूसरे की संतान से श्रेष्ठ है, और ना जाने क्या क्या…..

अहंकार की ऐसी भावनाएं आने के बाद प्रायः हमारी दूसरों से अपेक्षाएं होने लगती है कि वे हमारा मान रखें, हमारी बात माने, हमारा आदर करें इत्यादि और ऐसा ना होने पर हम उन्हें किसी ना किसी तरह से दुःख पहुंचाते। अहंकार की भावना प्रायः हमें अपनों दूर तो कर ही देती है परन्तु सबसे महत्वपूर्ण दूसरों को दुःख पहुँचाने का फल जब वो सर्वशक्तिशाली परम आत्मा आगे -पीछे अपने तरीके से हमें देता है (ये होना तो निश्चित है), तो हमें कष्ट हो सकता है कभी कभी उससे कहीं अधिक जितना हमने दूसरों को दिया था ऐसा समय यदि हमारे बुढ़ापे में आता है
 
जब हम दूसरों पर आश्रित से हो जाते हैं तो पश्चाताप और दुःख झेलने के अलावा हम कुछ अधिक नहीं कर सकते हैं। महाराज जी जी कहते हैं की अहंकार से ग्रसित होकर हमारे द्वारा दूसरों को दुःख पहुँचाने या छल -कपट से धन संपत्ति संचित करने के कृतों के साथ -साथ यदि हम पूजा -पाठ करते हैं, कथा कीर्तन -सत्संग करते हैं तो हमारा ऐसी भक्ति करना व्यर्थ है हमें इसका लाभ नहीं मिलता है। इसलिए महाराज जी के सच्ची भक्ति करने के इच्छुक लोगों को उनके इस उपदेश में निहित संदेशों को अपने सामर्थ अनुसार, पर ईमानदारी से चलने की कोशिश करनी चाहिए।
 
महाराज जी सबका भला करें!

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